वैदिक वाङ्मय में वर्णित आचार की जीवनोपयोगिता

डा0 सपना तिवारी

स्ंक्षेपिका

मनुष्य आचार का पालन करके ही श्रेष्ठ व्यक्ति बनकर सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर सकता है। इसलिए वैदिक ऋषियों ने मनुष्य को आचार का पालन करते हुए जीवन जीने का निर्देश  दिया है। मानव जीवन में आचार की मह किस प्रकार उपयोगी है उसी का विवेचन किया गया है।
 

की वर्ड: संस्क्त साहित्य, आचार, सम्यक ज्ञान, सम्यक चरित्र

मनुष्य जो व्यवहार अपने दैनिक जीवन में समाज में आने वाले विभिन्न प्राणियों से करता है उन्हें मनुष्य का आचरण कहा जाता है। जो मनुष्य की केवल ऐच्छिक क्रियाओं के लिए ही प्रयुक्त होता है। यद्यपि प्राचीन विद्वानों द्वारा सारगर्भित उक्ति ‘‘प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते’’ के अनुसार व्यक्ति की हर क्रिया का कोई न कोई प्रयोजन होता है, अतः ऐच्छिक क्रिया होती है परन्तु खांसना, द्दीकंना, सांस लेना आदि कुछ अनैच्छिक क्रियाओं में भी दैनिक जीवन में व्यक्ति द्वारा सम्पन्न होती है। इन क्रियाओं का आचार-शास्त्र से सम्बन्ध नहीं है। आचार-शास्त्र का सम्बन्ध केवल ऐच्छिक क्रियाओं से है, जिन्हे मनुष्य सीखकर सोच समझकर जान-बूझकर करता है।

मनुष्य का प्रत्येक क्षण कर्म करते हुए व्यतीत होता है, इन कर्मों का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्क्ष रूप से कोई न कोई उद्देश्य देता है। वह उद्देश्य क्या है? क्या उस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु ऐसे कुछ नियम बनाये जा सकते हैं जिनको आधार बनाकर मनुष्य अपने जीवन में समस्त कार्यों को करता रहे। क्या वह उद्देश्य भौतिक उपलब्धियों तक सीमित है? क्या वह ‘स्व’ की परिधि में घिरा हुआ है? अथवा उससे बाहर उससे ऊपर समष्टि या किसी परम सŸाा से भी उसका कोई सम्बन्ध है? और यदि उन नियमों पर चलने से मनुष्य अपने उद्देश्य प्राप्ति में सफल हो जाता है तो उसके आचरण अथवा व्यवहार में क्या अन्तर आता है? भौतिकता और अपने जीवन के प्रति उसके विचार किस प्रकार के हो जाते हैं? इसी प्रकार के विवेकपूर्ण प्रश्नों पर विचार करने के लिए आश्रय-भूत शास्त्र को आचार-शास्त्र, नीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र और कत्र्तव्यशास्त्र आदि नामों से व्यवहृत किया जाता है।
आचार-आचार का सामान्य अर्थ है- आचरण, व्यवहार, काम करने के रीति-रिवाज, चाल-चलन, लोकाचार इत्यादि। स्मृतियों में आचार तीन प्रकार का माना गया है। 1. देशचार 2. जात्याचार, 3. कुलाचार। बौद्ध दर्शन में कहा गया है- ‘गुरू क्तस्यार्थस्यांगीकरणमाचारः।1़ अर्थात् गुरू की कही हुई बातों को स्वीकार करना आचार कहलाता है। आचार शब्द की विस्तृत व्याख्या जैन दर्शन में दृष्टिगत होती है। जैन दर्शन में मोक्षानुभूति के लिए तीन प्रकार का आचार स्वीकार किया गया है।- ‘सम्यक् दर्शन-ज्ञान च रित्राणी मोक्ष मार्गः’2 अर्थात् सम्यक्दर्शन, सम्यक ज्ञान तथा सम्यक् चरित्र इन तीनों का एक साथ आचरण करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। सत्य के प्रति श्रद्धा का आचरण करना ‘सम्यक् दर्शन’ कहलाता है। संशय, विपर्यय और अध्यवसाय रहित जीवादि पदार्थों का ज्ञान ‘सम्यक ज्ञान’ कहलाता है। जिसमें हितकर कार्यों का आचरण और अहितकार कार्यांे का वर्जन किया जाता है उसे ‘सम्यक् चरित्र’ कहते है। इसके लिए निम्नलिखित आचरण आवश्यक है।
1. व्यक्ति को पांच प्रकार की समिति का पालन करना चाहिए-ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान निक्षेपण समिति, उत्सर्ग समिति।
2. व्यक्ति को शरीर, वचन तथा मन से स्वाभाविक प्रवृत्तियों का निषेध करना चाहिए, इन्हें जैन दर्शन में गुप्ति कहते हैं।
3. दस प्रकार के धर्मों का आचरण करना। ये धर्म है- धैर्य सत्य, क्षमा, शौच, तप, संयम, त्याग, विरक्ति, सरलता और ब्रह्मचर्य।
4. पंच महाव्रत-यह सभी आचरणों से महत्त्वपूर्ण माना गया है। ये पंच महाव्रत है- अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह।
इन उपरोक्त कर्मों का आचरण करके जीव मोक्षानुभूति के योग्य हो जाता है।
अद्वैत वेदान्त में चरण, चरित्र, आचार और शील इन्हें, एकार्थक शब्द माना गया है।3 जो जैसा कर्म और जैसा आचरण करता है वह वैसा ही होता है। इसलिए जो आनन्दित कर्म हैं उन्हीं का सेवन करना चाहिए। इस प्रकार श्रुति, कर्म और चरण का भेद से व्यपदेश करती है। इष्ट आदि कर्म समुदाय को चरण की अपेक्षा है क्योंकि ‘आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः’ अर्थात् आचरहीन को वेद इत्यादि कर्म पवित्र नहीं करते। स्मृतियों से सदाचारहीन कोई अधिकृत नहीं होता। पुरुषार्थत्व पुरुष संस्कारत्व में भी आचार अनर्थक नहीं हैं क्योंकि इष्ट आदि कर्म समुदाय के फल के आरम्भ करने पर इनकी अपेक्षा रखने वाला आचार उनमें ही कुछ अतिशय विशेष आरम्भ करता है। कर्म तो सर्व अर्थ करने वाला है ऐसा श्रुति और समृति में प्रसिद्ध है। इसलिए कर्म ही शील से उपलक्षित अनुशय रूप होकर जन्म की प्राप्ति के कारण हैं और कर्म के सम्भव होने पर शील से जन्म प्राप्ति युक्त नहीं है।4 शाक्त मत में सात प्रकार के आचार बताये गये हैं- वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धान्ताचार और लोकाचार।
मानव संस्कृति के निर्माण में सदाचार एंव सच्चरित्रता का महत्व रहा है। इनके बिना सुश्लिष्ट समाजिक जीवन असम्भव है और व्यक्तिगत सुख तथा शान्ति की कल्पना भी नहीं होती। हमारे देश में आचार तथा चरित्र की प्रतिष्ठा का प्रधान आधार प्रकृति की उदारता और सहनशीलता रही है। मानव समाजिक व्यवहार में स्वार्थ एवं संकीर्णता से उठकर उदात्त भावना से युक्त हुआ। इसमें ईश्वर की असीम कृपा ही है।
मनुष्य का प्रत्येक पल कर्म करते हुए बीतता है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन कर्मों का कोई न कोई उद्देश्य होता है। इन क्रियाओं में खाँसना, द्वीकंना आदि कुछ अनैच्छिक क्रियाएंे होती है। इन्हें हम सामान्यतः जान समझ कर नहीं करते, परन्तु जानकर की जाने वाली ऐच्छिक क्रियाओं के विषय में दो तथ्य तत्काल हमारे सामने उपस्थित होते है। पहला- हम किसी कार्य को कैसे करते हैं; दूसरे- हमें कोई कार्य कैसे करना चाहिए? किया गया कोई कार्य उचित है या अनुचित, यह निर्धारित करने वाला शास्त्र ‘आचार-शास्त्र’ कहलाता है। किसी भी समाज की संस्कृति वहाँ के आचार-विचार पर पर्याप्त रूपेण निभर्र करती है। आचार के लिए प्रयुक्त धर्म, कर्तव्य, नीति आदि एक शब्द उद्देश्य मानव-जीवन का उत्कृष्ट संचालन भी मानव रीति-रिवाज, व्यवहार या आचरण आदि अर्थों को ही द्योतित करते है। अतः कहा जा सकता है कि किसी भी समाज की संस्कृति उसमें रहने वाले लोगों के आचार-व्यवहार को ही प्रतिबिम्बित करती है।
संसार के प्रत्येक उस व्यक्ति, जिसने वैदिक संहिताओं का अध्ययन किया, संहिताओं ने इसीलिए आकर्षित किया, क्योंकि जीवन की निरन्तर परिवर्तित होने वाली परिस्थितिओं के मनुष्य को किस प्रकार के आचार एवं व्यवहार से अपेन को संयत रखना चाहिए? मानव की स्वाभाविक परिवृत्तियों, शारीरिक या मानसिक मूल्यों को सम्यक् समझ कर सदाचारी जीवन का निर्माण किस प्रकार किया जाय? जीवन के आदर्शों को प्राप्त करने के लिए कौन से साधन होने चाहिए? इन सबके विषय में समाधान के रूप में मूल रूप से हमारी वैदिक संहिताएँ तथा उन्हीं पर आश्रित अपर (परवर्ती) वैदिक वाड्.मय भी हमारे समक्ष उपस्थित हैं। मनुष्य के आचरणों का उचित-अनुचित रूप में मूल्यांकन करने के लिए विभिन्न मापदण्डों की आवश्यकता होती है, वे वैदिक वाड्.मय में सर्वत्र उपस्थित हैं।
भारतीय परम्परा और वर्गीकरण के अनुसार वेदों के तीन प्रमुख भाग हैं- कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड और उपासनाकाण्ड। इन तीनों के अन्तर्गत प्रायः जीवन के सभी अंग समाविष्ट हो जाते हैं। आचार के सिद्धान्तों के रूप में नीति भी इन में समाहित हो जाती है। अतः निःसड.्कोच यह कहा जा सकता हैं कि अन्य ज्ञान, विज्ञान, कथा, संस्कृति आदि की भाँति, नीति अथवा आचार का प्रथम उन्मेष ऋग्वेद में और सर्वाग्ीिण रूप से सम्पूर्ण वैदिक वाड्.मय में प्राप्त होता है।
आचार को ध्यान में रखकर यदि वैदिक का अध्ययन किया जाये तो ऊपर से दिखने वाली देवताओं की स्तुतियों, प्रार्थनाओं तथ धार्मिक कृत्यों में आचार और कर्तव्यों का ही निर्देश प्राप्त होता है, यद्यपि अनेक स्थलों पर स्पष्ट और स्वतन्त्र रूप से भी आचार के निर्देश प्राप्त होते हैं। ऋग्वेदीय देवताओं की चारित्रिक विशेषताओं पर ध्यान देने से प्रतीत होता है कि इनके स्रोता ऋत, सत्य, अहिंसा, मैत्री, दान, दया ज्ञान आदि आचारिक भावनाओं से ओतप्रोत हैं। सम्भवतः स्मृतिकारों, पुराणकार तथा महाभारतकार ने इन्हीं वैदिक भावनाओं के आधार पर धर्म या आचार के लक्षण निर्धारित किये और संहिताओं में ऋषियों की व्यापक आचार दृष्टि के आधार पर ही आचार का महत्व स्वीकार किया।

धृतिः क्षमो दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।5
सत्यं दया तपः शौच तितिक्षेक्षा शमो दमः।अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्यागः स्वाध्याय आर्जवम्।।

संतोषः समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरमः शनैः।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।

अनाद्यादेः संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हतः।
तेष्वात्मदेवताबुद्धिः सुतरां नृषु पाण्डव।।

श्रवणं कीर्तनं चाऽस्य स्मरणं महतां गतेः।
सेवज्यावनिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।

नृणामयं परो धर्मः सर्वेषां समुदाहृतः।
निंशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।।6

धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयते प्रजा।
यस्माद् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः।।7

‘आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः’ तथा ‘आचारः परमो धर्मः’, ‘आचारद्विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते’, ‘आचाराल्लभते आयुः’,
आदि अनेक उक्तियाँ स्मृतिकारों द्वारा आचार के महत्त्व का प्रतिपादन करने के लिए प्रचारित की गयी थीं।
वेदों ने जिसको स्वीकार किया वही सर्वमान्य है। आचार को ऋषियों ने प्रतिपल सजग होकर अनुभूत किया। तभी तो वह स्तुति करने में अपने इष्टदेव तक को उन्हीं गुणों से अभिभूत देखने लगे। अपने इष्ट को सत्य स्वरूप, अहिंसक, विद्वान्, परम मित्र, दयालु, निष्पाप आदि कहने का वैदिक ऋषि का अभिप्राय यही था कि ये सभी गुण उसे स्वयं अभिप्रेत थे। वह जानते थे कि जो स्वयं निर्भीक नहीं होगा, वह औरों को अभयदान क्या कर पायेगा? जो स्वयं अधीर होगा, वह दूसरों को धैर्य कैसे बँधायेगा? जो स्वयं विद्वान् नहीं होगा, वह अन्य को ज्ञान क्या दे पायेगा आदि।
जिस वस्तु को हम लोक में सत्य के नाम से अभिहित करते हैं, वही वेदों में ‘ऋत’ कहा गया है। यद्यपि ‘ऋतं च सत्य´्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत’ कह कर ‘ऋत’ और सत्य का एक साथ भी कथन है, परन्तु ऋषि त्रिकालज्ञ, सर्वज्ञ थे; अतः दैवी जगत् के सत्य को उन्होंने ‘ऋत’ कहा और लौकिक जगत् के सत्य को सत्य। अतः ऋत आचार का एक अंग था और सत्य के पर्याय के रूप में प्रतिष्ठिता था-‘इदमहमनृतात् सत्यम् उपैभि’8 से सत्य के विपरीतार्थक अनृत शब्द से भी स्पष्ट हो जाता है। केवल यही स्पष्ट कर देना पर्याप्त है, क्योंकि पृथ्वी को धारण करने वाले तत्त्वों में ऋत और सत्य दोनों को परिगणित किया गया है और पृथ्वी सदाचार पर ही टिकी है। अनाचार के प्रसृत हो जाने पर तो पृथ्वी काँप उठती है, प्राणी त्राहि-त्राहि करने लगते हैं। ‘तैत्तिरीय संहिता’ में वर्णन है कि पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्युलोक, दिशाओं और स्वर्गलोक में सर्वत्र ऋत की विजय होती है।9 ऋग्वेद के एक मन्त्र में ऋत की महिमा बताते हुए कहा गया है कि ‘ऋत अनेक प्रकार की सुख-शान्ति का स्रोत है। ऋत की धारणा पापों और दुःखों को नष्ट करती है।10
वैदिक आचार-शास्त्र का स्पष्ट निर्देश हैं कि दुष्कर्म करने वाले, अर्थात् अनाचारी इस ऋत के पथ को पार नहीं कर सकते हंैऋतस्य पन्थाः न तरन्ति दुष्कृतः।11
ऋत के अतिरिक्त संहिताओं में प्रमुखतः सत्य, अहिंसा, मैत्री, अभय, स्वस्ति, विवेक-बुद्धि, दानशीलता, यशोलिप्सा, पापराहित्य-पवित्रता आदि अनाचारिक तत्वों का उल्लेख है।
वैदिक संहिताओं में समष्टि की भावना पर अधिक बल दिया गया है और अधिकतम प्रार्थनाओं तथा स्तुतियों में उत्तम पुरुष बहुवचन का प्रयोग है; हम सौ वर्ष तक देखें, सौ वर्ष तक सुनें, सौ वर्ष तक स्वस्थ रहें आदि में समाष्टिभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित है। प्रसिद्ध गायत्री मन्त्र में ‘धियो यो नः ‘हम सबकी बुद्धियों को’ कहकर भी ऋषि ने सबे कल्याण की प्रार्थना की है, फिर भी व्यक्ति का ही महत्व आरम्भ से अन्त तक है। व्यक्ति ही परिवार का कारण है और व्यक्ति ही समाज के निर्माण में सर्वाधिक अनिवार्य अंग है। सभी जानते है कि व्यक्ति या व्यक्तियों से रहित केवल मिट्टी, धरती, सरोवर, पर्वत आदि किसी राष्ट्र या समाज का निर्माण नहीं कर सकते। अतः जिस परिवार, समाज या राष्ट्र में प्रत्येक व्यक्ति का महत्त्व सागर में बूँद की भाँति है, वह यदि स्वयं शुद्ध आचारवान् हो जाये तो परिवार, समाज और राष्ट्र दूषित रह ही नहीं सकते है। वैदिक ऋषि इस तथ्य को जानते थे, अन्यथा वह ईश्वर से अपने इस मन को शुद्ध और शुभ सटल्प वाला बनाने की प्रार्थना न करते, जिस मन में बिना कोई कार्य किया जाना सम्भव ही नहीं है। यस्मान्न ऋते किं च न कर्म क्रियते तन्मे मनःशिवकंकल्पमस्तु।12 और जिस व्यक्ति का मन शुभ सटल्प वाला न होकर विद्वानों द्वारा बनायी गयी मर्यादाओं में से एक का भी उल्लंघन करता है, वह पापी होकर संसार में जीवन व्यतीत करता है। जबकि मर्यादा का पालन करने वाला द्युलोक के कुलाय में, विविध जीवन-मार्गों के विस्तार-स्थल पर विद्यमान इन विविध नक्षत्रों में स्थित होता है।
ऋग्वेद के दसवें मण्डल में आये ‘सप्तमर्यादाः कवयस्ततक्षु’13 मन्त्र के आधार पर निरुक्तकार ने सात मार्यादाओं में सुरापान, जुआ खेलना, स्त्री-व्यसन, मृगया, कठोर दण्ड, कठोर वचन और दूसरे पर मिथ्या दोषारोपण, को मर्य-अदाः (मर्यादा) माना है, क्योंकि ये सात कार्य मनुष्यों को नष्ट कर डालते है। पक्षन्तर में वे चोरी, गुरु-स्त्री-गमन, ब्रह्महत्या, भू्रणहत्या, सुरापान, दुष्कर्म का बार-बार सेवन और पातक करके असत्य-भाषाण-इनको सात मर्यादाएँ मानते हैं।

गुरुतल्पारोहणं ब्रह्महत्या भूणहत्या सुरापानं दुष्कृतकर्मणः पुनःपुनः सेवनं पातकेऽनृतोद्यमिति।14

जब किसी मनुष्य की प्रज्ञा विचारों को प्रक्षालित करके जीवन को तेजोमय बना देती है तो वह मानव आचारमय हो जाता है और स्वयं शुद्धाचारी होता हुआ परिवार, समाज तथा राष्ट्र को सदाचारी बनाने में सक्षम सहयोगी सिद्ध होता है, क्योंकि आचारनिष्ठ व्यक्ति को कत्र्तव्याकत्र्तव्य का बोध रहता है।वैदिक मानव-जीवन के प्रति सदैव सजग रहे हैं। वह अपनी विवेकबुद्धि से परिपूर्ण अनुशासित, संयमित, सत्यसकंल्परूप थे। वह अपने परम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील तो रहते थे। परन्तु पलायनवाद का आश्रय लेकर नहीं। अपने कत्र्तव्यों को भूलकर या भुलाकर संन्यास लेने की ओर प्रवृत्त वैदिक ऋषि कदापि नहीं थे। वह तो ब्रह्मचर्य, गृहस्थ को पूर्णरूपेण पालन करके, अपने कत्र्तव्यों का सम्यक् पालन करके, मानव जीवन को सफल बनाने में ही अभ्युदय और निःश्रेयस के सिद्धिदायक धर्म को अपनाना अपनी आचार-संहिता मानते थे। वह तो कर्म करते हुए ही असत् से सत् को, तमस से ज्योति को और मृत्यु से अमृतत्व को पाना चाहते थे। उसके आचार-शास्त्र में तो ईश्वरार्पण करके त्याग भावना से किये जाने वाले कर्म करते हुए ही सौ वर्षों तक जीने की कामना करने के लिए कहा गया था। उसे स्पष्ट निर्देष था कि लोभ न करो, क्योंकि सभी सांसारिक वस्तुएँ नश्वर हैं।
समाज के प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक प्राणी के लिए वैदिक संहिताओं में आचारिक निर्देश हैं, चाहे वह राष्ट्र का पालक राजा हो अथवा परिवार का पालक मुखिया पिता; चाहे वह प्रजाजन के रूप में राष्ट्र का अंग हो अथवा पिता, माता, पति, पत्नी, बहन अथवा पुत्र या पुत्री के रूप में परिवार का अंग। वैदिक ऋषि का चिन्तन सब स्वरूपों में विद्यमान था। वैदिक ऋषि जहाँ कन्या को ब्रह्मचर्य के द्वारा श्रेष्ठ पति पाने का मन्त्र देते हैं, वहीं नववधू को पति-गृह में श्वसुर, श्वश्रू, ननद और देवरों पर सम्राज्ञी होने का आशीर्वाद भी, जहाँ वह पिता द्वारा पुत्रों की कामना करवाते हैं, वही पिता को गोद में पुत्रियों के सुखपूर्वक खेलने का भी उल्लेख करते हैं, जहाँ पिता में संतति के प्रति-स्नेही और रक्षक होने की भावना भरते है, वहीं संतति में माता-पिता के प्रति आज्ञाकारी और भाई-बहनों के प्रति समान मन वाला होने की भावना भी उत्पन्न करते हैं।
वैदिक संहिताओं में न तो कहीं माता-पिता द्वारा कन्या जन्म पर अश्रु बहाने या दहेज के लिए कन्या को कोसने का उल्लेख है और न ही पति गृह में किसी वधू को दहेज के लिए प्रताडि़त करने का आशय। वैदिक समाज तो उस स्वस्थ मन मस्तिष्क वाले आर्यों का समाज था, जहाँ सद्भावनाओं के लिए स्थान था, साथ ही असत्यभाषी, हिंसक, पापी, द्वेषी और अहिताकांक्षी व्यक्ति को समूल नष्ट करने की प्रार्थना भी ईश्वर से की, जिससे समाज अथवा राष्ट्र में अनाचार को प्रश्रय न मिल सके, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री।
वह समाज के कमजोर व्यक्तियों की दान सहायता देकर करना अपना कर्तव्य समझते थे क्योंकि वह जानते थे कि सुख-दुख रथ के चक्र के समान क्रमशः ऊपर नीचे-आने जाने वाले हैं, अतः आज समर्थ होने पर यदि वह किसी की सहायता करते है तो अवसर आने पर उसकी सहायता भी लोग निःसंकोच करेंगे।
सांसारिक जीवन के प्रत्येक कृत्य में वह ईश्वर का हस्तक्षेप मानते थे। इसीलिए वह यज्ञ, प्रार्थना और स्तृति रूप उपासनाओं से शुभ कर्मों में ईश्वर की सहायता की अपेक्षा रखते थे और अशुभ कर्मों तथा असत् तत्त्वों से दूर रखने की कामना हर क्षण करते थे। इसीलिए यज्ञ,प्रार्थना और उपासना उसके जीवन के प्रमुख अंग थे, फिर भी अकर्मण्यता इसके इष्ट को प्रिय नहीं थी। चाटुकारिता से ईश्वर क्रुद्ध हो जाते थे। इस तथ्य को जानते हुए वह भद्र को संबोधित एक मन्त्र में यह भी कहाँ है कि ‘हे रुद्र, हम केवल नमस्कारों से तुझे क्रुद्ध की नहीं करें- ‘मा त्वा रुद्र चुक्रुः धामा नमोभिः’।15
दर्शन शास्त्र का एक प्रसिद्ध सिद्धान्त है कि प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण अवश्य होता है और किसी प्रयोजन के बिना तो मन्दमति भी किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, वैदिक आर्य भी निरर्थक ही किसी कार्य में प्रवत्त नहंी होते थे। प्रत्येक कार्य की भाँति उनकी आचारित प्रवत्ति भी उहेश्यपूर्ण थी। अतः वैदिक संहिताओं में आचार में प्रवृत्त होने के निर्देश के साथ ही उसके सुफल का भी बहुशः वर्णन है।
वैदिक आर्य तीन मुख्य एषणाओं- पुत्रैषणा, वित्तैषणा तथा लौकैषणा के वशीभूत थे। यद्यपि वे सर्वशक्तिमान सत्ता के विषय में अधिकाधिक जानने के लिए उत्सुक रहते थे, तथापि इहलोक-परलोक के प्रति सदैव सजग रहते थे। धन-धान्य से सम्पन्न होकर भौतिक सुख-ऐश्वर्योंः पुत्र-पौत्रों के साथ शारीरिक, मानसिक शक्ति से युक्त होकर सौ वर्षों तक जीने तथा दान आदि उत्तम कर्मों के द्वारा यश पाने की कामना सदैव करते रहते थे। इसका प्रमुख कारण यही है कि उन्हें ज्ञात था कि संन्यास से मोक्ष नहीं, पलायनवादिता तथा कत्र्तव्यों से विमुख होना ही सम्भव है अैार अहिंसा, सत्य, उदारता, पवित्रता तथा जीवन के विविध सम्बन्धों के प्रति अपने कत्र्तव्यों का उचित निर्वाह इस लोक तथा परलोक-दोनों में लाभदायक है। वे आचार का महत्त्व जानते थे, इसीलिए संहिताओं में अनेक स्थलों पर आचार के महत्त्व के विषय में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध होती है।    ऋग्वेद में वर्णित है कि सत्य बोलने वाला शुभ कर्म करके पार हो जाता है।16 सत्यरूप परम तत्त्व का मुख सुवर्ण के पात्र से आच्छादित है, ईष्र्या-द्वेष करने वाले मनुष्य को हिंसक पशु के मुख में डाल दो17, जो विद्वान् मित्र को छोड़ देता है उसकी वाणी, में कोई फल नहीं है। वह सब कुछ व्यर्थ ही सुनता है, वह सत्कर्म को नहीं जान सकता18, हे ईश्वर तुम्हारे आश्रय में रहकर व्यक्ति भय का नाम तक नहीं जानता19, केवल अपना ही सुख और कल्याण चाहने वाला व्यक्ति सज्जन नहीं होता, अज्ञानी मनुष्य (नरक में) विमज्जित होता है21, डूब जाता है, दाताओं की मृत्यु नहीं होती है22, पुण्य से मनुष्य स्वर्ग प्राप्त करता है और इसके विपरीत फल को पाप से प्राप्त करता है23, कर्म-शून्य मनुष्य गड्ढे में जाता है24, अतिथि सेवा से गृहस्थ पृथ्वीलोक मतथा अन्त में स्वर्गलोक को प्राप्त करता है25, अग्नि की समिधा आहुति, वेदाध्ययन, नमस्कार आदि से परिचर्या करेन वाला व्यक्ति अधिक यशस्वी होता है, उसे देवकृत और मनुष्यकृत पाप व्याप्त नहीं होते हैं26, आदि।
इस प्रकार सभी आचारिक तत्त्वों के पालन का प्रतिफल लगभग एक समान भौतिक सुख-समृद्धि, सर्वजन-कल्याण, शाक्ति और स्वर्ग की प्राप्ति बताया गया है। जहाँ जरामरण शून्यता का वर्णन है अथवा अमृतत्त्व की चर्चा है, उससे मोक्ष का अनुमान लगाया जा सकता है। अतः कहा जा सकता है कि स्पष्टः पुरुषार्थ-चतुष्ट्य का उल्लेख न होने पर भी यही वैदिक आचार का लक्ष्य था। जहाँ वेदों में आचार या सदाचार का सुफल बताया गया है, वहाँ अनाचार या दुराचार का दुष्फल भी वर्णित है।
वस्तुतः किसी भी वस्तु के दो
पहलू होते हैं। यदि किसी वस्तु का सकारात्मक भाव होगा तो नकारातत्मक भी अवश्यक होगा। इसीलिए वेदों में द्यूत-व्यसनी का वर्णन तथा अन्य अनाचारों का वर्णन देखकर यह नहीं समझ लेना चाहिए कि वैदिक समाज में अनाचार ही सर्वत्र फूला-फला हुआ था, क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि किसी रोग के हो जाने पर ही उसका उपचार खोजा जाये। रोग होने की आशंका होते ही रोग का उपचार खोज लेना अधिक बुद्धिमानी होती हैं। इसी प्रकार सत्य के साथ असत्य की कल्पना, पुण्य के साथ पाप की कल्पना, सुख के साथ दुःख की कल्पना, अहिंसा के साथ हिंसा की कल्पना या किसी भी सदाचार के विपरीत अनाचार का वर्णन आचार-शास्त्र का वैशिष्ट्य ही है। द्यूत-व्यसनी को सम्बोधित करके उसे द्यूत-कर्म से विरत करने का प्रसंग लक्षणात्मक भी माना जा सकता है। यदि वास्तविकता भी मान ली जाये तो ‘अपवादाः सर्वत्र वर्तन्ते’ के अनुसार अपवादस्वरूप एकाध अनाचार के उदाहरण मिल भी जाये तो कोई अन्तर नहीं पड़ता है। फिर, द्यूत-व्यसनी की दुर्दशा देखकर कौन सद्बुद्धि उसका अनुकरण करने का साहस करेगा। वैदिक आर्य का आर्दश वह द्यूत-व्यसनी नहीं, उसका अराध्य था, जो आचार की प्रतिमूर्ति था। आदर्शरूप अराध्य में उसने आचारिक तत्वों का अवलोकन और प्रतिष्ठापन बार-बार इसीलिए किया कि उनसे प्रेरणा-प्राप्त मानव मात्र में सदाचार का प्रचार-प्रसार हो। वह इस प्रकार जीवन व्यतीत करना चाहता था कि स्वयं के लिए तो सुखकर और कल्याणकर हो ही, समाज के अन्य लोगों तथा प्रणिपात्र को भी सुख पहुँचाने वाला और कल्याण करेन वाला हो।
वैदिक मानव ने सदैव दिव्य गणों की कामना की और दिव्य गुण दुराचार के लिए नहीं होते हैं।
इस प्रकार वैदिक वाड्.मय में एक विशालकाय आचार-शास्त्र निहित हैं। तो यह कहना चाहिए कि वैदिक संहिताएँ एक समृद्ध आचार-शास्त्र के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित हो सकती हैं। उल्लेखनीय है कि उस आचार-शास्त्र में वर्णित है कि ‘आदर्श समाज के लिए न तो उलूक के समान चरित्र वाले व्यक्ति चाहिए (जो कार्य के समय सोते रहें और विश्राम के समय जागें तथा दूसरों की निद्रा में बाधा डालें) और न ही भेडि़ये के समान दूसरों की हिंसा करके अपनी उदरपूर्ति करने वाले चरित्रहीन चोर चाहिए। स्वान की भाँति स्वामी के आगे दुम हिलाने वाले विवेकहीन चाटुकार व्यक्ति भी आदर्श समाज नहंी बना सकते। रूप, विशालता और गति के मद में अन्ध गरुण की भाँति मदान्ध व्यक्ति भी आदर्श समाज नहीं बना सकते हैं। गिद्ध के समान लोभी व्यक्तियों से भी समाज नहीं बनता है।

उलूकयातु शशुलूकयातंु जहि श्वयातुमुत कोकयातुम्।
सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुं दृषदेन अमृण रक्ष इन्द्र।।27

अतः छल-प्रप´्च से रहित सरल स्वभाववाले स्वार्थ से ऊपर उठकर व्यक्तिगत जीवन को आचारनिष्ठ बनाने वाले परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति समर्पित होकर सबको साथ लेकर चलने वाले, सब की उन्नति की कामना करना सिखाने वाली केवल एकदेशीय, एककालिक नहीं, सार्वभौम, सार्वकालिक आचार स्थापित करने वाली वैदिक संहिताएँ यदि वैदिक आचार-शास्त्र वैदिक संस्कृति से अभिहित की जाये तो अत्युक्ति न होगी।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. सर्वदर्शन संग्रह पृष्ठ-66
2. तत्त्वार्थ सूत्र-6
3. ब्रह्मसूत्र शाटरभाष्य-3.1.9
4. ब्रह्मसूत्र शाटरभाष्य-3.1.9 पृष्ठ-10
5. मनुस्मृति-6.92
6. श्रीमद्भागवतपुराण-7.8-12
7. महाभारत शांति पर्व- 108.11
8. वाजसनेही संहिता-1.5
9. वाजसनेही संहिता-3.3.5.19
10. ऋग्वेद चतुर्थ मण्डल 23वाँ सूक्त-8
11. ऋग्वेद नवाँ मण्डल 73वाँ सूक्त-6
12. वाजसनेही संहिता-39.3
13. ऋग्वेद दसवाँ मण्डल
14. निरुक्त-6.27
15. ऋग्वेद द्वितीय मण्डल 33वाँ सूक्त-4
16. ऋग्वेद नवाँ मण्डल 73वाँ सूक्त-1
17. अथर्ववेद-2.19-23
18. ऋग्वेद दसवाँ मण्डल 71वाँ सूक्त-6
19. ऋग्वेद दसवाँ मण्डल 35वाँ सूक्त-14
20. ऋग्वेद अठवाँ मण्डल 87वाँ सूक्त-18
21. ऋग्वेद नवाँ मण्डल 64वाँ सूक्त-21
22. ऋग्वेद दसवाँ मण्डल 107वाँ सूक्त-8
23. अथर्ववेद-11.8.33
24. ऋग्वेद नवाँ मण्डल 73वाँ सूक्त-9
25. अथर्ववेद-9.6
26. ऋग्वेद अठवाँ मण्डल 19वाँ सूक्त-5,10,13,14,12
27. ऋग्वेद सातवाँ मण्डल 104वाँ सूक्त-22