मुस्लिम स्त्रियों की स्थिति के निर्धारक प्रमुख धर्मशास्त्रीय विधान-कुरान,हदीस


          डा0 रेखा चैबे 
                       नौसीन स्वालेह        

स्ंक्षेपिका

इस्लामी दर्शन में कुरान और हदीस इस्लामी आदर्शों और सिद्धान्तों के मुख्य स्रोत हैं। भिन्न-भिन्न व्याख्याआंे ने शरीयत के आइने को धूमिल कर दिया है, जिससे औरत अपना चेहरा साफ नहीं देख पा रही है। इस अध्याय को लिखने का उद्देश्य कुरान और हदीस के आइने में मुस्लिम महिलाआंे को उनका वास्तविक चेहरा दिखाना है। चैदह सौ वर्षाें का सफर तय करने के पश्चात् मुस्लिम समाज में प्रचलित परम्पराएं, रूढि़याँ, भ्रान्तियाँ एवं स्थानीय रीति-रिवाज तथा शरीयत की विभिन्न व्याख्याओं ने आधुनिक मुस्लिम औरत को अपने घेरे में ले रखा है। प्रस्तुत अध्ययन में मुस्लिम महिला की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक तथा धार्मिक स्थिति का विष्लेषण किया गया है। मुस्लिम महिला की सामाजिक स्थिति को प्रभावित करने वाले मस्लों में बहुविवाह, तीन तलाक, पर्दा प्रथा, शिक्षा, स्वास्थ्य, राजनैतिक स्थिति, सार्वजनिक जीवन, वोट देना, मुस्लिम स्त्री की धार्मिक स्थिति आदि महत्वपूर्ण समस्याआंे पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।


की वर्ड: मुस्लिम महिला ,इस्लामी दर्शन, कुरान, हदीस


प्रस्तावना:कुरान व हदीस ने महिला एवं पुरुष के रिश्तों का जो ताना-बाना बुना प्रस्थिति ह,ै उसमें स्त्री और पुरुष को विभिन्न भूमिकाएं सौंपी हैं और उसी के अनुसार दर्जा, कर्तव्य सुविधाएँ तथा अधिकार दिये हैं। महिला के शोषण का प्रमुख कारण पुरुष द्वारा अपने विशेष अधिकारों का प्रयोग करना और उसके साथ जुड़ी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ना है। कुरान एक धर्म का प्रचार करता है, जिसका प्रभाव अनेक व्यक्तियों पर होना आवश्यक है। प्रत्येक जाति के स्त्री, पुरुष दो अंग हैं, इन दोनो रथवाहों या चक्को के भरोसे ही कोई भी जाति संसार में उन्नति के पथ पर सरपट भाग सकती है। यंत्र में उसके टुकड़ों का यथास्थान विन्यास जैसे उसे सजीव-सा कर देता है, उसी प्रकार समाज में भी इन दोनों अंगों का यथा स्थान विनियोग हुआ है। कुरान की शिक्षा एक विशेष काल को लेकर प्रवृत्त हुई है। उसको एक विशेष परिस्थिति मे बनकर जमना, बढ़ना और फलना-फूलना पड़ा है। अतः यह अन्याय होगा यदि हम उस समय की अवस्था को बिना दिखाये ही इसका वर्णन आरम्भ कर दें। कुरान में स्त्रियों को जो स्थान प्रदान किया गया है उसकी महत्ता हमें उस समय की स्थिति पर विचार करने ही से मालूम होगी।
कुरान में स्त्री: औरत के सामाजिक स्तर का सम्बन्ध सामाजिक मूल्यों से ताल्लुक रखने वाली समस्याआंे से है। औरत के दर्जे से अर्थ यह है कि एक समाज विशेष में औरत को मर्द से ऊँचा-नीचा या बराबर क्यों माना जाता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि किसी संस्कृति में महिला के प्रति पुरुष का क्या दृष्टिकोण है, स्त्रियों के अधिकार और कर्तव्य क्या है तथा उनसे किस भूमिका को अदा करने की आशा की जाती है। इस्लाम धर्म के अनुसार कुरान में अल्लाह के दिये आदेशों पर चलकर आदर्श समाज बनाने की व्यवस्था है। कुरान में  औरत का सामाजिक स्तर मालूम करने के लिए विवाह परिवार आदि संस्थाएं महत्वपूर्ण हैं।
परिवार समाज की इकाई है। अरस्तू का मानना है कि सिर्फ सन्तानोत्पत्ति की धारणा से ही परिवार संगठित नहीं रहता, इंसान की जरूरतें भी परिवार को एक इकाई बनाये रखती है। फास्टर के अनुसार, ‘परिवार इंसान के विकास में बाधक नहीं साधक है।’ इस्लाम का नजरिया भी यही है इसलिए ब्रह्मचर्य की मनाही की गयी है और जो व्यक्ति परिवार का खर्चा उठाने की शक्ति रखते हैं उन्हें परिवार बनाकर रहने की ताकीद की गयी है। कुरान में घोषणा की गयी है कि ‘सब इंसान बराबर है। सब मनुष्यों की पैदाइश इस प्राणी से हुई है। सब इंसानों का मूल एक है। उनके बीच नस्ल, वंश, लिंग, जाति का भेद नहीं किया जा सकता।’ इस्लाम ने यह भी प्रेरणा दी कि ‘लड़कियों का पालन-पोषण पुण्य कार्य है। इससे स्वर्ग मिलता है।’
कुरान में परिवार:  इस्लाम ने सामाजिक जीवन में परिवार को आधारभूत महत्व दिया है। वह जिस प्रकार के परिवार का गठन चाहता है, उसकी रूपरेखा स्पष्ट की है। उसके दाम्पत्य जीवन, उनके उत्तरदायित्वों, उसकी समस्याओं, परिवार के सदस्यों से सम्बन्ध उनके अधिकारों और उनसे सम्बन्धित अधिकतर बातों के बारे में विस्तृत मार्गदर्शन किया है और अपने अनुयायियों को उनका पाबंद बनाया है। खुदा के पैगम्बरों (संदेषओं) ने जो उसके चुने हुए और उसके सबसे प्यारे बन्दे होते हैं, पारिवारिक या कुटुम्बकीय जीवन व्यतीत किया है और उसकी अपेक्षाआंे को पूरा किया है। कुरान ने इसका स्पष्टीकरण इन शब्दों में किया है-‘‘हमने आप (मुहम्मद साहब) से पहले कितने ही पैगम्बर भेजे और उन्हे बीवियाँ और सन्तान प्रदान की।’’ (कुरआन) प्वित्र कुरआन ने अनेक पैगम्बरों की पत्नियों का, उनके बाल-बच्चों और परिवार के अन्य परिजनों को उल्लेख किया है। इससे उन पैगम्बरों के अपने परिवार वालों से सम्बन्ध, उनका प्यार, सहानुभूति निष्ठा और शुभेच्छा और सगे सम्बन्धियों का उनके साथ व्यवहार और उनके भी समर्थन व विरोध करने का विवरण हमारी समस्त पहलुआंे से स्वयं अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद साहब और उनकी पत्नियों एवं सन्तानों का उल्लेख भी कुरआन मजीद में मौजूद हैै। यहाँ एक प्रश्न उठता है कि वह यह कि ईश्वर से सन्देष्टाओं (पैगम्बरों) ने क्यों पारिवारिक जीवन गुजारा और उनकी समस्याओं और उलझनों से अलग रहकर खुदा की इबादत में क्यों नहीं लग गये? इसका उत्तर यह है कि पारिवारिक जीवन से धर्म और नैतिकता को जो उन्नति मिलती है और सहानुभूति, सहयोग और शुभचिंतन की जो पुनीत भावनाएं पलती बढ़ती हैं, और आत्मनियन्त्रण और सुधार एवं प के जो अवसर मिलते हैं, वे किसी और साधन से प्राप्त नहीं होते। मनुष्य के सामाजिक जीवन का आरम्भ उसके निकटतम लोगों से होता है। यही उसका खानदान एवं परिवार है। इस बात को इस प्रकार से भी कहा जा सकता है कि परिवार वह सर्वप्रथम संस्था है जिससे मनुष्य ने सामाजिकता का पाठ पढ़ा है। इस जगत में आने के बाद मनुष्य को सबसे पहले जिस सहायता की आवश्यकता होती है वह उसे परिवार से ही मिलती है। परिवार से बाहर उसकी आशा नहीं की जा सकती है। परिवार का आरम्भ पुरुष और स्त्री के लैंगिक सम्बन्ध से होता हैं इसलिए परिवार के गठन में इसको आधारभूत महत्व प्राप्त है। दाम्पत्य सम्बन्ध से पूरा परिवार आस्तित्व में आता है। माता-पिता पुत्र-पुत्री, भाई-बहन और उनके सम्बन्ध से अन्य बहुत से रिश्ते स्थापित होते हैं। परिवार का अस्तित्व खुदा का अनुग्रह एवं अहसान है। सामाजिक जीवन में इसका बड़ा महत्व है यही बात कुरान इन शब्दों में उल्लेख हुई है-
‘‘खुदा ने तुम्हारे लिये तुम्हारी ही सहजाति से पत्नियाँ उत्पन्न की और तुम्हारी पत्नियों से तुम्हारे लिये पुत्र और पौत्र प्रदान किये और खाने के लिए पाक चीजें दीं, तो फिर क्या ये लोग (यह सब कुछ देखते और जानते हुए भी) असत्य को मानते है। और खुदा की नेमत (अनुग्रह) का इन्कार करते हैं।’’
परिवार एवं कुटुम्ब के लोगांे से व्यक्ति के सम्बन्ध दूर एवं निकट के होते हैं किसी से उसका खून का रिश्ता सीधे और किसी से माध्यमी होता है। इसी दृष्टि से जीवन में उसके हक व अधिकार और जिम्मेदारियाँ नियत होती है और मृत्यु के बाद वे एक दूसरे के वैधानिक वारिश होते हैं। परिवार का धर्म में विशष स्थान है इसका अर्थ यह है कि परिवार केवल सामाजिक संस्था ही नही बल्कि वे धार्मिक और नैतिक हैशियत भी प्राप्त है। जो व्यक्ति पारिवारिक जीवन गुजारता है वह वास्तव में पैगम्बरों के तरीके पर अमल करता है और अपने जीवन-चरित्र एवं शिष्टाचार को उसके माध्यम से बुलंद करता है।
परिवार व्यवस्था में स्त्री-पुरूष की समानता (स्थिति): यह सही है कि प्राचीन सभ्यताएं अधिकतर पुरुष प्रधान थीं, परन्तु कुरान ने औरत और मर्द दोनों की उत्पत्ति एक ही जान से बताते हुए उसकी इंसानी बराबरी पर जोर दिया। कुछ शोधकर्ता मानते हैं कि जहाँ तक अधिकारों का प्रश्न है, कुरआन में औरत को पहले से ज्यादा हक दिये गये परन्तु फिर भी किसी-किसी क्षेत्र में मर्द को उस पर प्रधानता दी गई। कुछ आधुनिक विद्धानों का मत है कि दोनों के दर्जे में समानता है। जहाँ तक औरतों के अधिकार और कर्तव्यों का सवाल है उनमें भी बराबरी है। ऐसा नहीं है कि अधिकार कम दिये गये हैं और कर्तव्य अधिक। कुरान के मुताबिक औरतों का हक (मर्दों पर) वैसा ही है जैसे दस्तूर के मुताविक औरतों पर है। कुरान में स्पष्ट कहा गया है, ‘‘औरतों पर जैसे फराइज़ है वैसे ही इनके हुकूक भी हैं।’’ कुरान औरत और मर्द दोनों के आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक अधिकारों में बराबरी का दृष्टिकोण रखता है। मौलाना आजाद आयत 2ः228 की तफ्सीर में लिखते हैं कि इन चार शब्दों में औरत को वह सब कुछ दे दिया जो इसका हक था परन्तु इससे पहले उसे कभी नहीं मिला था। जीवन और समाज की सभी बातें इन चार लफ्जों में आ गई और सभी रखनों व खतरों को हटा दिया गया। ‘‘लाहुन्ना मिथलुल लाधी अलयहिन्ना’’ का अर्थ है कि पति के अधिकार और पत्नी के अधिकार बराबर हैं। बराबरी केवल अधिकारों मे ही नहीं बल्कि औरत और मर्द की कमाई में भी रखी गयी है। कुरान में लिखा है, ‘‘जो कुछ मर्दो ने कमाया है इसके मुताबिक मर्दों का हिस्सा है और जो खुद औरतों ने कमाया है इसके मुताबिक औरतों का हिस्सा है।’’-अन्निसाः32 आयत की तफ्सीर इस तरह है कि यह अमल सालेह का क्षेत्र है। इसमें बढ़ने के लिए किसी पर रोक नहीं है यदि पुरुष मेहनत करे तब वह अपने संघर्ष और कमाई का पूरा फल पायेगा और यदि औरत ऐसा करती है तब वह अपनी मेहनत का पूरा फल पायेगी। कुछ विद्धान कमाई का अर्थ सवाब से लेते हैं और खुद इसके आर्थिक पहलू पर जोर देते हैं परन्तु दोनों ही सूरतों में मर्द और औरत को मेहनत का फल देने में अल्लाह ने किसी तरह का भेद नहीं किया। दाम्पत्य सम्बन्ध केवल कामतृप्ति का साधन ही नहीं, बल्कि इससे परिवार की बुनियाद पड़ती है। इसमेें पुरुष और स्त्री दोनों के अधिकार हैं जो उन्हंे प्राप्त होंगे और दोनों के उत्तरदायित्व भी हैं जिनके वे दोनों पाबन्द होंगे। कुरान ने बड़ी स्पष्टता के साथ कहा है-  ‘‘और स्त्रियों का हक है (पुरुषों पर) जैसा कि (पुरुषों का) उन पर हक है।’’ इस प्रकार कुरान स्त्री-पुरुष की समानता पर बल देता है।
कुरान में बहुविवाह: बहुविवाह दो प्रकार का होता है, बहुपत्नित्व और बहुपतित्व। कुरान में बहुविवाह का अर्थ कई पत्नियाँ रखने से है। कुरान की सूर: निसा में लिखा है, ‘‘और अगर तुमको इस बात का डर हो कि बेसहारा (लड़कियों) में इन्साफ कायम नहीं रख सकोगे तो जो औरते तुमको पसन्द हैं उनसे निकाह कर लो, दो-दो या तीन-तीन या चार-चार से। लेकिन अगर तुमको इस बात का भय हो कि उनके साथ बराबरी (का बर्ताव) न कर सकोगे तो एक ही पत्नी से निकाह काफी है। या लौंडी जो तुम्हारे कब्जे मंे हो (इस पर संतोष करना (यह) तदबीर) ज्यादा मुनासिब है क्यांेकि उसमें अन्याय नहीं होने की ज्यादा उम्मीद है। - सूर निसा: 3 इस्लाम में बहु विवाह की इजाजत कुछ विशेष परिस्थितियों में दी गई है, इस पर भी पाबन्दियाँ लगाई गई हैं। तारीखी और समाजी पृष्ठभूमि में देखा जाये तो एक से अधिक शादियों की आज्ञा बेसहारा और यतीम लड़कियों को सहारा देने के लिए दी गई हैं। इस्लाम से पहले अरब लावारिस लड़कियों के वली बन जाते थे और उसके धन पर कब्जा कर लेते थे। न तो वे स्वयं उनसे विवाह करते थे और न ही किसी को उनसे विवाह करने देते थे। इसलिए एक से ज्यादा शादी की इजाजत दी गई है। परन्तु यह भी बता दिया गया है कि यदि पत्नियों में बराबरी न कर सको तो एक ही बेहतर है। पत्नियों के साथ बराबरी का व्यवहार बहु विवाह के लिए अनिवार्य है। लावारिस और विधवाओं को सहारा देना इस्लाम मंे महत्वपूर्ण माना गया है। कुरान में पत्नियों में समान व्यवहार को स्पष्ट करते हुए कहा गया है, ‘‘और तुम चाहो लेकिन यह तो तुमसे हो नहीं सकेगा कि पत्नियों में एक सा वर्ताव कर सको, तो बिल्कुल (एक ही तरफ) झुक भी न पड़ो कि दूसरी को छोड़ बैठो, गोया वह कहीं की न रहे और अगर मेल कर लो और (एक दूसरे पर ज्यादती से) से रहो तो अल्लाह निश्चय ही बख्शने वाला मेहरबान है।’’ - सूर: निसा: 120
इस आयत में साफ शब्दों में कहा गया है कि पुरुष कितना भी चाहे अपनी पत्नियों के साथ बराबरी का व्यवहार करे परन्तु यह उससे हो नहीं सकेगा फिर किस तरह मुसलमान पुरुष यह मानते हैं कि उन्हें चार शादी की इजाजत बिना किसी पाबन्दी और शर्त के है। कुरान यह मानता है कि मर्द अपनी पत्नियों के साथ बराबरी का व्यवहार नहीं कर सकता, फिर मुसलमान मर्द यह कैसे सोचते हैं कि वे बहु विवाह के द्वारा औरत के साथ अन्याय नहीं कर रहे हैं।
बहु विवाह इस्लाम में अपवाद स्वरूप रखा गया है परन्तु इसको मूल सिद्धान्त मान लिया गया। बेसहारा को सहारा देने या औलाद नहीं होने पर बहु विवाह की इजाजत है। इन परिस्थ्तिियों में समान व्यवहार की शर्त है जबकि अधिकतर मुसलमान यह मानते हैं कि उन्हें चार शादी की आम इजाजत है। इस्लाम ऐसी परिस्थितियों के लिए एक उपचार बताता है और बहु विवाह को चार पत्नियों तक सीमित करता है। यह इस्लाम का पहला सुधार था। दुसरा सुधार सभी पत्नियों से बराबर का वर्ताव करना था। यदि किसी पत्नी को किसी तरह का नैराश्य या कुण्डा हो तो वह अदालत का सहारा, ले सकती है। पत्नी ाार्मिक सिद्धान्तों के मुताबिक न्याय पाने का हक रखती है और कहा गया है ‘‘अपनी पसन्द की औरत से विवाह करो दो, तीन अथवा चार परन्तु यदि तुम्हें भय हो कि तुम उनके मध्य समान न्याय नहीं कर सकते हो तो तुम केवल एक (औरत) से निकाह करो।’’
कुरान के अवतरित होने से पूर्व बहु विवाह की कोई सीमा नहीं थी। बहुत से लोग बड़ी संख्या में पत्नियाँ रखते थे और कुछ के पास तो सैकड़ों पत्नियाँ होती थीं। इस्लाम ने अधिक से अधिक चार पत्नियों की सीमा निर्धारित कर दी। कुरान के इसी अध्याय अर्थात् सूर: निसा आयत 129 में कहा गया है-‘‘तुम स्त्रियांे (पत्नियों) के मध्य न्याय करने में कदापि समर्थ न होंगे।’’कुरान से मालूम हुआ कि बहु विवाह कोई आदेश नहीं बल्कि एक अपवाद है। बहुत से लोगों को भ्रम है कि एक मुस्लिम पुरुष के लिए एक से अधिक रखना अनिवार्य है। इस्लाम ने कुछ विशष परिस्थितियों में बहु विवाह की इजाजत दी गई है परन्तु बहु विवाह को कभी बढ़ावा नहीं दिया गया। इस्लाम से पहले बहु विवाह का रिवाज बिना किसी शर्त और पाबन्दी के था। कुछ धर्मों में जहाँ बहु विवाह पर पाबन्दी है यह छुपाकर किया जा रहा है जिससे पत्नी और बच्चों को और नुकसान होता है।
बहु विवाह मुबाह के अन्तर्गत आता है जिसका अर्थ है अनुमति न कि आदेश। अर्थात् यह नहीं कहा जा सकता कि एक मुस्लिम पुरुष जिसकी दो, तीन व चार पत्नियाँ हों, वह उस मुसलमान से अच्छा है जिसकी केवल एक पत्नी हो। और नहीं मिलने पर विवाह संविदा समाप्त करने की भी कर सकती है। नई पत्नी अपनी मर्जी से बहु विवाह को स्वीकार करती है वह कानूनी तौर पर पत्नी के सभी अधिकार प्राप्त करती है। बजाय एक वैश्या के जो कि समाज में गिरी हुई समझी जाती है। दूसरी पत्नी को यह विकल्प है कि यह तो कानूनी पत्नी बने और अपने को शर्म और जिल्लत से बचाते हुए अपने पति को भी विश्वाघात करने से रोके। एंेसा देखने मे आता है कि अधिकतर दूसरी शादी पहली पत्नी की मर्जी के खिलाफ होती है इसलिए वह शादी की संविदा में यह शर्त रख सकती है कि वह दूसरी शादी उसकी मर्जी के खिलाफ या उसको बिना बताये की गई तब पहली पत्नी तलाक ले सकती है। यह बहु विवाह से सम्बन्धित तीसरा सुधार था। इन सुधारों से पता चलता है कि मुस्लिम धार्मिक सिद्धान्त बहु विवाह को बढ़ावा देने के बजाय उसको समाज में पति पत्नी और बच्चों के हित में सीमित करता है। इस्लाम चाहता है कि हर इंसान वैधानिक दाम्पत्य में रहे जो कि इसके अधिकारों में निहित है न कि अवैधानिक और व्यभिचारी जीवन बितायें।
कुरान में तलाक: इस्लाम यह मानता है कि पति-पत्नी को साथ तब तक रखना चाहिए जब तक उनमें प्यार हो और एक दूसरे का साथ निभाने की क्षमता हो। जब दोनों का साथ रहना प्रयास करने पर भी, सम्भव नहीं हो ऐसी स्थिति में इस्लाम पुरुष को तलाक और स्त्री को खुला का अधिकार देता है। पति-पत्नी यदि एक दूसरे के लिए बोझ बन जाएं तब इस्लाम अदालत को वैवाहिक जीवन खत्म करने का अधिकार देता है। क्यांेकि इस्लामी विवाह एक संविदा है, इसलिए जरूरत होने पर इसको समाप्त भी किया जा सकता है। हालाकि खुदा ने तलाक को पसंद नहीं किया। इसलिए तलाक सबसे नागुजीर हालात मे देना चाहिए। तलाक में जल्दी करने की मनाही की गई है। कुरान निर्देश देता है कि पति-पत्नी का झगड़ा होने पर तलाक से पहले पूरी तरह कोशिश करना चाहिए कि दोनों के बीच मिलाप हो जाये। कुरान में कहा गया है, ‘‘और अगर तुमको मियां बीवी के बिगाड़ का अन्देशा हो तो (बजाय अदालत या मामला तूल पकड़ने से पहले ही) पुरूष की तरफ से एक पंच और एक पंच स्त्री की तरफ से ठहराओ। अगर दोनों की नेक सलाह ठहरी तो अल्लाह दोनों से मिलाप करा देगा बेशक अल्लाह बड़ा जानकार, हर तरफ खबरदार है।’’ कुरान पति को आदेश देता है कि पत्नी उसे पसन्द नहीं हो फिर भी उसे अच्छा व्यवहार करे ‘‘इनके साथ अच्छे सुलूक से रहो अगर वह तुमको न पसन्द भी हो तो हो सकता है कि तुम किसी चीज को नापसन्द करो और अल्लाह इसमें बहुत कुछ भलाई रख दे।’’लेनिक समझौता करने के प्रयास के बाद भी पति-पत्नी का साथ रहना मुश्किल हो और दोनों का चैन सुकून खत्म होने वाला हो तो वह आखिरी हरबे के तौर पर तलाक का प्रयोग करना चाहिए।
कुरान में खुला: खुला उस विवाह विच्छेद अर्थात् तलाक को कहते हैं जिसमें स्त्री स्वयं विवाह विच्छेद (तलाक) के लिए अनुरोध और मांग करती है। औरत को भी (कुछ हद तक) तलाक लेने का अधिकार दिया गया है जिसे खुला कहते हैं। जब कोई आदमी अपने पति के कर्तव्य नहीं निभाता है, और पत्नी को तलाक भी नहीं देता है, धार्मिक प्रशासन द्वारा पति को बुलाकर पहले तलाक देने के निर्देश देना चाहिए। यदि तब भी वह तलाक नहीं देता है तब धार्मिक प्रशासक को उसकी पत्नी को तलाक का आदेश दे देना चाहिए। अबु बासिर इमाम अल सादिक के अनुसार यदि कोई आदमी अपनी पत्नी को पहनने के कपड़े और गुजारा भत्ता नहीं देता है तो मुस्लिम नेताओं के लिए यह अनिवार्य है कि वे उनकी तलाक करा दें परन्तु हर किसी को काज़ी बनकर पति-पत्नी के झगड़े में हस्तक्षेप करने की इजाजत नहीं है और न ही इस्लाम यह चाहता है कि पश्चिमी देशों और अमेरिका की तरह छोटी-छोटी बातों पर पति-पत्नी का तलाक हो जाये।
जीनत शौकत अली ने अपनी पुस्तक ‘‘एम्पावरमेण्ट आॅफ वुमेन इन इस्लाम’’ में कहा है कि कुरान का निर्वचन वर्तमान संदर्भ में किया जाना चाहिए। उदाहरणार्थ जब कुरान ने दो या तीन पत्नियों की अनुमति दी तो यह निर्बन्धित अर्थ में किया गया था। यह केवल इसलिए किया गया था क्योंकि उस समय पुरुष कई पत्नियाँ रखते थे। कुरान में यह भी उल्लिखित है कि यदि तुम सभी पत्नियों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार नहीं कर सकते, तो तुम्हें एक ही रखना चाहिए। उनके अनुसार कुरान का त्रुटिपूर्ण निर्वचन होने के कारण स्त्रियों को समुदाय में पीछे छोड़ दिया गया है।  यही नहीं तलाक दे देने पर भी कुरान एक बार फिर स्त्री पुरुषों को मेल करने का अवसर देता है। इस्लामी परिभाषा से इस रीति को ‘हलाला’ कहते हैं। कुरान ने कहा है- ‘‘यदि उसे तलाक दे दिया, तो उस (पुरुष) को इसके बाद वह स्त्री ‘हलाल’ (विहित) नहीं, जब तक कि दूसरा पति उससे विवाह न कर ले। फिर उसने यदि ‘तलाक’ दे दिया तो उन दोनों पर दोष नहीं, वह अपने पूर्व पति-पत्नी-सम्बन्ध पर लौट जा सकते हैं। यदि समझंे कि वह परमात्मा की मर्यादा को निबाह सकेंगें।’’सामान्य विवाह सम्बन्ध के अतिरिक्त ‘शिया’ सम्प्रदाय वाले मुसलमान एक और सर्वाधिक पति-पत्नी सम्बन्ध स्वीकार करते हैं, जिसका परिभाषित नाम ‘मुतअ’ है। यह सम्बन्ध सदा के लिए नहीं होता बल्कि कुछ खास अवधि मुकर्रर करके होता है। उसके बाद वह सम्बन्ध स्वयं टूट जाता है। स्त्री-पुरुष के विषय में कुरान ने उपमा देकर कहा है-‘‘स्त्रियाँ तुम्हारा वस्त्र हैं और तुम उनके।’’‘‘स्त्रियाँ तुम्हारी हैं।’’
स्त्री पुरुष के तथा पुरुष स्त्री के अपने दोषों को ढाँक सकता है। इसीलिये यहाँ उनको एक दूसरे का वस्त्र कहा। द्वितीय वाक्य में, न केवल सन्तानोत्पत्ति के विचार से ही स्त्री पुरुष का कृषि कृषक होना उचित है, बल्कि जिस प्रकार कृषि पर कृषक का जीवन अवलम्बित है वैसे ही स्त्री पर पुरुष जगत का अस्तित्व होना भी इससे ध्वनित होता है। कुरान में उद्धत है। ‘‘पुरुष स्त्रियों पर अध्ष् िहै, इसलिये कि परमात्मा ने किसी को किसी पर बड़ाई दी।’’
यह बात अवष्य स्त्रियों के लिए निराशाजनक है। इसमें पुरुषों का स्त्रियों पर अचल आधिपत्य सिद्ध किया गया है। किन्तु तो भी तत्कालीन स्थिति और इस्लाम द्वारा उनको दिये गये अधिकार, स्त्री-जगत पर कम उपकार नहीं है। उस परिस्थिति में जहाँ तक हो सकता था, उतना किया गया। अब पुरुषों के स्त्रियों पर अधिष्ठातृत्व का निर्णय मुसलमान स्त्रियों के हाथ में है।
कुरान में पर्दा प्रथा: परिवार द्वारा समाज में अधिकारों और कर्तव्यों की व्यवस्था की जाती है जिससे समाज के सदस्यों मंे संघर्ष न हो और वे एक दूसरे के पूरक के रूप मंे साथ-साथ विकसित हों। समाज मंे इंसान सामन्जस्य बनाये रखने के लिए समाज कई तरह के नियंत्रण लगाता है। कुछ नियन्त्रण नियमानुसार चलते हैं और कुछ समय गुजरने के साथ परम्पराएं और प्रथाएं बन कर समाज में शामिल हो जाती हैं तथा अपने मूल उद्देश्यों से दूर हट जाती हैं। इस्लामी समाज मंे भी औरत के जीवन से जुड़े ऐसे कुछ बिन्दु हैं। मुस्लिम औरत को बालिग होने पर नामहरम जिससे निकाह हो सकता है, से पर्दा करना होता है। पर्दे को अरबी भाषा में हिजाब कहते हैं। कुरान में पर्दे के सम्बन्ध में कहाा गया है, ‘‘ए नवी। अपनी वीवियों, बेटियों और मुसलमानों की औरतों से कह दो कि अपने ऊपर अपनी चादरों के घूंघट डाल दिया करें, इस अमल से इसकी ज्यादा उम्मीद है कि वह पहचान ली जायेगी और उन्हें सताया नहीं जायेगा।’’इस आयत का भावार्थ इसके नुजूल की वजह से है ‘‘चूँकि कुछ लोग विशेषकर यहूदी मुसलमान स्त्रियों’’ को सुबह जब वह शौच आदि के लिए जाती थी तो छेड़ते थे और जब उनको पकड़ा जाता था तो कह दिया करते थे कि हमने इनको लौंडि़या समझा था, भद्र महिला नहीं। इसलिए पहचान के लिए भद्र महिलाओं को घूंघट करने के लिए कहा गया, इससे पर्दा अर्थ नहीं है। अरब के प्रसिद्ध विद्धान और हदीस विशेषज्ञ मोहम्मद नासिरूद्दीन अल्बानी कुरान और हदीस के प्रकाश में  पर्दे को तहकीक करते हुए लिखते हैं कि स्त्री का चेहरा लाजमी (आवश्यक रूप से) तौर से पर्दे में सम्मिलित नहीं। अल्बानी यह भी मानते हैं कि इसका छुपाना अधिक अच्छा है। अल्बानी उन लोगों से मतभेद रखते हैं जो चेहरे को लाजमी तौर पर सतर में सम्मिलित करते हंै वह कुरान की अदालत को दलील के लिये पेश करते हैं। जिसने किया यानि चेहरे को छुपाया उसने अमल किया, और जिसने नहीं छुपाया तो कोई हर्ज नहीं है। इस आयत में ‘इल्ला मा जह मिन्हा’ से चेहरा और हाथों को अलग किया गया है। जो लोग चेहरा और हाथों को गलत कहते हैं वे गुमराह हैं।
इस्लाम में स्त्री के साथ पुरुष को भी पर्दे का आदेश दिया गया है। इस बारे में कुरान सूरा सूर में लिखा है, ‘‘ए नबी मोमिन मर्दों से कहो कि अपनी निगाहें नीची रखें और अपनी पाकदामिनी की हिफाजत करें-और मोमिन, औरतों से कहो कि अपनी निगाहें नीची रखें।’’ इस सन्दर्भ में अमोरी डी रेनकोट का मानना है कि अरब मे हिजाब या पर्दा बहुत पुरानी प्रथा है मध्य पूर्व में यह असीरियन समझ से पैदा हुई और इसे दर्जे की निशानी माना जाता था। लौंडियाँ निम्न स्तर की स्त्रियां पर्दा नहीं करती थी। पर्दा करने पर सत्ताधारियों के द्वारा सजा दी सकती थी। वुमन एन्ड पावर इन हिस्ट्री-अमोरी डी रेनकोट। कुरान ने औरत को इज्जत के साथ जीवन बिताने और पुरुष की हवस से बचाने के लिए पाबन्दियाँ अवश्य लगाई जिनको पुरुष प्रधान समय ने अपने तरीके से तोड़ मरोड़ा और वह औरत लिए परेशानी का कारण बनते हुए अपने मुख्य उद्देश्य से दूर हट गयी। आम तौर पर लोग यह समझते हैं कि पर्दे का सम्बन्ध केवल स्त्रियों से है। हालांकि कुरान में अल्लाह ने स्त्रियों से पहले पुरुषों के पर्दे का वर्णन किया है- ‘‘ईमानवालों से कह दो कि वे अपनी नज़रे नीची रखे और अपनी पाकदामिनी की सुरक्षा करेें। यह उनको अधिक पवित्र बनायेगा और अल्लाह खूब परिचित है हर उस कार्य से जो वे करतें है।’’
कुरान  में कहा गया है कि उस क्षण जब एक व्यक्ति की नज़र किसी स्त्री पर पड़े तो उसे चाहिए कि वह अपनी नज़र नीची कर ले। वस्त्र के द्वारा पर्दे के साथ-साथ आँखो और विचारों का भी पर्दा करना चाहिए। किसी व्यक्ति के चाल-चलन बातचीत एवं व्यवहार को भी पर्दे के दायरे में लिया जाता है। पर्दे का औरतों को क्यों उपदेश दिया जाता है इसके कारण का पवित्र कुरान की सूराः अल-अजहाब में उल्लेख किया गया है- ‘‘ऐ नबी! अपनी पत्नियों, पुत्रियों और ईमानवाली औरतों से कह दो कि वे (जब बाहर जायें) तो उपरी वस्त्र से स्वयं को ढांक ले। यह अत्यन्त आसान है कि वे इसी प्रकार जानी जाए और र्दुव्यवहार से सुुरक्षित रहें और अल्लाह बड़ा क्षमाकारी और बड़ा ही दयालु है।’’पवित्र कुरान कहता है कि औरतों को पर्दे का इसलिए उपदेश दिया गया है कि वे पाकदिमिनी के रूप मंे देखी जाय और पर्दा उनसे दुव्र्यवहार को रोकता है।
कुरान में स्त्री शिक्षा: सुकरात का मानना था कि हमारे सभी अनुचित कार्य अज्ञान की वजह से होते हैं। प्लेटो रिपब्लिक में लिखता है कि जिनके हाथों में सत्ता है उनकी जिम्मेदारी है कि वे न्यायपरायण समाज का निर्माण करें और शिक्षा ही वह साधन है जिसके जरिये समाज को ऐसा बनाया जा सकता हैं। प्लेटो के अनुसार सामाजिक शिक्षा ही सामाजिक न्याय का साधन है। प्लेटो का केवल शासक वर्ग के लिए शिक्षा का विचार अप्रजातान्त्रिक है। इस्लाम भी सामाजिक शिक्षा पर विशेष्ज्ञ बल देता है। इस्लाम प्रत्येक मुसलमानों के लिए शिक्षा प्राप्त करना फर्ज करता है। स्त्री-पुरुष की तालीम में अन्तर नहीं .......... करता है। कुरान में शिक्षा के महत्व का आंकलन इससे .......... किया जा सकता है कि कुरान ने शिक्षित और अशिक्षित को समानता नहीं दी हैं। ‘‘क्या आलिम व जाहिल बराबर होते हैं।’’ कुरान के इन शब्दों को हदीस में स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि आलिम और बेइल्म का दर्जा बराबर नहीं हो सकता। प्रत्येक अक्लमंद को इसका अन्तर मालूम है। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि कुरान में कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि औरत के लिए अलग शिक्षा है और पुरुष के लिए अलग। सभी मुसलमानों को तालीम हासिल करने की ताकीद की गई है। संसार में मौजूद सब तरह के ज्ञान विज्ञान जानने और उस पर गौर करने की दावत कुरान देता है। इसका मतलब यह है कि इस्लाम हर तरह की शिक्षा चाहे वह सितारों के बारे में, जानवरों के बारे में, जीव विज्ञान, जन्तु विज्ञान, पौधों के बारे में वनस्पति विज्ञान, समुद्र विज्ञान आदि शिक्षा की प्रत्येक शाखा को सीखने और उस पर विचार करने की, बिना लिंगभेद के सलाह देता है।
कुरान में स्त्री की आर्थिक स्थिति: परिवार का अंग्रेजी रूपान्तर फेमिली शब्द लैटिन भाषा के फैमिलस से निकला है जिसका मूल अर्थ माता-पिता, बच्चों एवं दासों के एक समूह से है। फेमिली के लिए ग्रीक समानान्तर शब्द है ओईकानोमोस (व्पांदवउवे) जिससे इकनाॅमिक्स शब्द की उत्पत्ति हुई। इसका मतलब है कि परिवार प्राथमिक रूप से एक आर्थिक संगठन है। परिवार के कार्यो में एक मुख्य कार्य परिवार के लिए कमाकर धन अर्जित करना है। प्राचीन काल में यह काम परिवार का मुखिया किया करता था। इस्लाम ने औरत को कमाने का अधिकार दिया और औरत की कमाई पर मर्द का हक नही माना जबकि मर्द की कमाई पर औरत का भी अधिकार तस्लीम किया। मोहम्मद साहब के युग में और सहाबा के जमाने में भी ऐसे उदाहरण मिलतें है कि कृषि और व्यापार आदि औरतों के कमाई के जरिये थे। बहुत सी ऐसी औरतों की मिसालें भी हदीस में मिलती है जो अपना माल व दौलत अपने पति पर खर्च करती थी और उनके पति नहीं कमाते थे। मुतहरि इस बात पर जोर देते हैं कि इस्लाम की दृष्टि में औरत अपने कमाने और बचत करने के इंसानी विशेषताओं और अपने धन दौलत को बढ़ाने के अधिकार के बावजूद जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए स्वयं किसी भी तरह जिम्मेदार नहीं है।
कुरान में स्त्री की राजनैतिक स्थिति: जहाँ तक औरत की हुक्मरानी का सवाल है कुरान मंे ऐसी कोई आयत नहीं मिलती जिसमें औरतों को हुकूमत या रियासत का प्रमुख होने से रोका गया है। किसी बात पर जायज और नाजायज होने में कुरान का उसूल यह है कि जिसकी मनाही नहीं की गई हो वह जायज है। सूर:नमल की आयत 32 से 44 में हजरत सुलेमान और मल्का सबा के बारे में बताया गया है। मल्का सबा की शान व शौकत कुरान इस तरह बयान करता है यह ऐसी अजीमुशान मल्का थी जिसको ऐसी चीजें अता की गयी थीं कि बादशाह भी उसके मोहताज होते हैं।
भारत के प्रसिद्ध विद्वान मौलाना अशरफ अली थानवी औरत की हुक्मरानी के सम्बन्ध में फतवा देते हैं- क्योंकि कुरान में मल्का सबा की सरकार की प्रशंसा की गई है और उसकी शासन व्यवस्था का तरीका प्रजातंत्र की तरह का सा था और इनके इस्लाम कुबूल करने के बाद ऐसी कोई घटना नहीं मिलती कि मल्का को पद से हटाया गया हो। इसलिए मौलाना को बुखारी की हदीस (औरत के राष्ट्राध्यक्ष बनने को नकारती है) के बावजूद इस्लाम के आदेशों में यह दिखाई दिया कि महिला राष्ट्राध्यक्ष बन सकती है। मौलाना के अनुसार व्यक्तिगत हूकूमत में औरत के द्वारा परामर्श या राय लेकर हुकूमत करना जायज है। मौलाना थानवी के अनुसार महिलाएं न केवल प्रजातान्त्रिक सरकारों  की राष्ट्राध्यक्ष बन सकती हैं बल्कि यदि किसी देश में एक खानदान की या एक व्यक्ति की सरकार हो तो महिला वहाँ की शासक बन सकती है। इस शर्त पर कि वह शासन चलाने में अन्य लोगों में राय मशवरा करें।
कुरान में हिंसा: इस्लाम के प्रारम्भिक दौर में अरब अपनी पत्नियों के साथ तशद्दुद और मार-पीट किया करते थे। मर्द औरतों को परेशान करने के लिए तकलीफें पहुँचाते थे। मोहम्मद साहब ने उन्हें औरतों को मारने से रोका। उस समाज में रश्म रिवाज और हिक्मते अमली का ध्यान रखते हुये सिर्फ सरकश औरतों को सही रास्ते पर लाने के लिए पीटने की इजाजत दी गई थी न कि महिलाओं को तकलीफ देने या अधीनस्थ शाबित करने के लिए। हदीस में है कि जब मोहम्मद साहब की पत्नियों के पास औरतें शिकायत लेकर आयीं, कि उनके पति बहुत अधिक पीटने लगे हैं, तब मोहम्मद साहब ने फिर से मर्दों को ऐसा करने से रोका। इस्लाम में स्त्री और पुरुष के पारस्परिक सम्बन्ध में बारे में कुरान में (9ः71) औरत को मर्द का दोस्त या मित्र बताया है।
हदीस में स्त्री: हदीस का शाब्दिक अर्थ है जदीद या नवीन, हदीस की तुलना में कुरान कदीम है। हदीस मोहम्मद साहब के कौल, फैल और तकरीर का नाम है। कौल से अर्थ उनके शब्द है, फैल से अर्थ आपकी व्यवहारिक शिक्षा है जो सहाबा ने आपसे प्राप्त की, जिन्दगी के सम्बन्ध मंे जानकारी, प्रार्थना के तरीके, आर्थिक व सामाजिक सम्बन्ध, नैतिकता किरदार आदि सब फैल के अन्तर्गत आते हैं। तकरीर से यह मतलब  निकाला जाता है कि मोहम्मद साहब के सामने किसी आदमी ने कोई काम किया या आपको इसकी इत्तेला हुई और मोहम्मद साहब उस पर चुप रहे अर्थात् आपने उस काम को बुरा नहीं समझा। हदीस से अर्थ उस तरीके से है जिस पर मोहम्मद साहब ने अपनी जिन्दगी में चलकर दिखाया, जिसकी मुसलमानों को शिक्षा दी और जो हम तक विश्वसनीय तरीके से पहुंचा। हदीस न सिर्फ कुरान की शारेह अर्थात् तर्जुमान है बल्कि इसका महत्व यूँ भी है कि यह इस्लामी कानून का दूसरा स्रोत है और शरीयत की तश्कील करती है।
कुरान और हदीस के एक दूसरे के मिल जाने के डर से, मोहम्मद साहब ने उस समय केवल कुरान लिपिबद्ध कराया और हदीस लिखने से मना कर दिया था। जब लिखने वालों की संख्या बढ़ गयी और लोगों में इस्लाम की समझ मैदा होयी, तब मोहम्मद साहब ने हदीस लिपिबद्ध करने की इजाजत दे दी।
हदीस मंे स्त्री की सामाजिक स्थिति: रूसों का मानना है कि प्रकृति में व्यक्ति स्वतन्त्र पैदा हुआ तथा व्यक्तियों ने परस्पर समझौता करके समाज को जन्म दिया। समाज एक कृत्रिम रचना है। समाज के बाहर भी व्यक्ति के अपने अधिकार हैं। उसे इंसान के नैसर्गिक अधिकारों को छीनने का कोई हक नहीं। मैकाइवर और आधुनिक समाजशास्त्रियों ने रूसो के सामाजिक समझौते के सिद्धान्त को सर्वथा शामक माना है। मैकाइवर और पेज के अनुसार यह सही नहीं है कि मनुष्य समाज के बाहर का प्राणी है तथा समाज के बाहर भी रह सकता है। इस्लाम भी इसका समर्थन करता है। इस्लामी जीवन व्यवस्था का आधार ईश्वरीय आदेशों का पालन है। इस्लाम एक ऐसी जीवन व्यवस्था है जिसमें इंसान के आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक और नैतिक पक्ष सम्मिलित हैं। इस्लाम मनुष्य पर कुछ प्रतिबन्ध लगाता है जिससे न केवल व्यक्ति बल्कि परिवार और समाज को नुकसान नहीं हो। हदीस में औरत की सामाजिक स्थिति विवाह, परिवार, तलाक, दहेज, शिक्षा, पर्दा आदि के सम्बन्ध में मोहम्मद साहब के विचार और व्यवहार की समीक्षा है।
इस्लाम परिवार को एक नेक और मजबूत संस्था के रूप में अस्तित्व में लाता है और उसको उन्नति देता है। वह न उसकी भौतिक आवश्यकताआंे को अनदेखा करता है और न उसकी नैतिक अपेक्षाओं को। वह दोनों को पूरा महत्व देता है। उसमें किसी भी पहलू से कोताही हो तो उसके सुधार का उचित उपाय करता है। परिवार की संरचना यदि सही तौर तरीके पर हो और वह सुआचरण को अपनाने लगे तो पूरे समाज की ही दिशा सही हो जायेगी और उसका सफर बिल्कुल सही दिशा मंे होने लगेगा। इसलिए कि परिवारों के समूह ही से समाज अस्तित्व में आता है। परिवार से उसे जो ऊर्जा और शक्ति प्राप्त होती है वह किसी और माध्यम से नहीं मिल सकती।
हदीस मंे स्त्री का बहु विवाह: वेस्टरमार्क के अनुसार विवाह की परिभाषा ‘‘एक या अधिक पुरुषों का एक या अधिक स्त्रियों के साथ वह सम्बन्ध जो प्रथा एवं कानून द्वारा मान्य किया जाता है और जिसमें इस संगठन में आने वाले दोनों पक्षों एवं उनसे पैदा हुए बच्चों के अधिकार और कर्तव्यों का समावेश होता है।’’ इस्लाम ने जाहिलियत के जिन अफआल को बाकी रखा उसमें मुख्य बहु विवाह है। इस्लाम से पहले सभी सभ्यताओं में विशेषकर अरब और यहूदियों में जितनी मर्जी हो पत्नियाँ रखते थे। उस दौर में नई पत्नियाँ रखना बुरा नहीं माना जाता था। इस्लाम ने पत्नियों की संख्या निश्चित कर दी और बहुविवाह पर कुछ पाबन्दियाँ और शर्तें लगा दी। इस्लाम मे बहु विवाह का उद्देश्य बेसहारा स्त्रियों को सहारा देना है। विधवाएं या ऐसी औरते जिनकी शादी करने की आयु निकल गयी हो या जिन औरतों के भाई पिता आदि सहारा देने वाले रिश्तेदार नहीं हो उनको आश्रय देना बहु विवाह का मुख्य उद्देश्य है। बहु विवाह की आवष्यकता इसलिए पड़ी कि युद्धों के दौरान मर्दों की शहादत के कारण महिलाएं अधिक संख्या में रह गयी और पुरुष कम। अधिकतर विधवाएं बेसहारा थी इसलिए उनको सहारा देने के लिए बहु विवाह की इजाजत दी गयी। -राइट्स आॅफ वूमेन इन इस्लाम-असगर अली इंजीनियर-पृष्ठ102
मोहम्मद साहब ने निकाह में औरत के लिए मेहर को अनिवार्य माना और निकाह की संख्या साधारण परिस्थितियों में घटाकर एक कर दी। विषेष परिस्थ्तिियों में ही चार निकाह जाइज किये ना कि साधारण परिस्थितियों में। इस पर भी यदि पत्नियों के बीच इंसाफ नहीं कर सके तब हदीस में बहु विवाह की मनाही की गयी है।
बहु विवाह की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि युद्धों के दौरान मर्दों की शहादत के कारण महिलाएं अधिक संख्या में रह गयी और पुरुष कम। अधिकतर विधवाएं बेसहारा थी इसलिए उनको सहारा देने के लिए बहु विवाह की इजाजत दी गयी। -राइट्स आॅफ वूमेन इन इस्लाम- असगर अली इंजीनियर- पृष्ठ-2

हदीस मंे तलाक: तलाक का मतलब है पति और पत्नी का वैवाहिक सम्बन्ध विच्छे। इस्लाम में विवाह को एक संविदा माना है तलाक बुरा अमल होते हुए भी समाज की वास्तविकता है, इसको झुठलाया नहीं जा सकता। यह आवश्यक नहीं कि सभी वैवाहिक जीवन सफल हो और सभी पति पत्नी साथ रहना चाहते हैं फिर भी इस्लाम के विरूद्ध कई धर्मों में तलाक का प्रावधान नहीं रखा गया है। उदाहरणार्थ हिन्दू धर्म में तलाक का कोई प्रावधान नहीं है। पति पत्नी का जन्म जन्मान्तर का रिश्ता माना जाता है परन्तु इस सामाजिक वास्तविकता को मंजूर करते हुए हिन्दू कोड बिल में तलाक का प्रावधान रखा गया है। यद्यपि तलाक मुसलमानों में एक सामान्य घटना थी फिर भी मोहम्मद साहब इसके पक्ष में बहुत इसलिये नहीं थे क्योंकि वे परिवार के स्थायित्व के पक्ष में थे। अतः तलाक की अनुमति तभी थी जब पति-पत्नी विवाह सम्बन्ध बनाये रखने में असमर्थ हो जाय। हदीस के अनुसार ‘तलाक वह वस्तु है जो वैध तो है, परन्तु ईश्वर जिसे घृणा की दृष्टि से देखता है।’
इस्लाम मे तलाक का प्रावधान रखते हुए भी इसे अच्छा अमल नहीं माना है। तलाक नापसंद की गयी और आखरी रास्ते के तौर पर इसकी इजाजत दी गयी है। शरीयत में तलाक देना इतना आसान नहीं है जितना कि आमतौर पर लोग समझते हैं। तलाक की इजाजत शरीयत ने मजबूरी में दी है, निबाह नहीं होने पर आखरी तरीका तलाक माना गया है। इमाम (जाफर) अस सादिक के अनुसार मोहम्मद साहब ने कहा कि अल्लाह के नज़दीक उस घर से प्यारा कोई घर नहीं जहाँ शादी हो और उस घर से ज्यादा गुस्सा अल्लाह को कहीं नहीं जहाँ तलाक के द्वारा शादी तोड़ी जाती हो। हजरत इब्ने उमर से रिवायत है कि मोहम्मद साहब ने कहा अल्लाह तआला को हलाल चीजों मंे तलाक नापसन्द है। अबु दाउद इस्लाम की नज़र में तलाक को बहुत बुरा समझा गया है और इज़ाजत तभी दी गयी है जब कोई और रास्ता नहीं हो। शरई तलाक वह है जो समय के अन्तराल से दी जाय। मोहम्मद साहब एक साथ तीन तलाक के विरूद्ध थे। हजरत मजबूद बिन लबीद से रिवायत है कि रसूल अल्लाह को एक व्यक्ति के सम्बंध में बताया गया है उसने अपनी पत्नी को इकट्ठी तीन तलाके दी है। मोहम्मद साहब नाराज होकर खड़े हो गये और कहा क्या अल्लाह की किताब से खेलते हो और मैं तुम्हारे बीच मौजूद हूँ।
हदीस मंे खुला: इमाम मलिक के अनुसार यदि मर्द ने औरत को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया हो और कोई दुव्र्यवहार भी नहीं किया हो फिर भी पत्नी अपने पति से अलग होना चाहती है तो पति के लिए जाइज़ है वह अपना दिया हुआ माल इससे वापिस ल ेले और उसे खुला दे दे। अब औरतें खुला के अपने अधिकार का प्रयोग कर पति से अलग होने लगी हैं। लाहौर के एक जिला एवं सेरान न्यायाधीष के अनुसार समाज के इन बदलते रवैयों का कारण महिलाओं में शिक्षाको बढ़ावा और अपने कानूनी अधिकारों की जानकारी है। पाकिस्तान में औरतें आमतौर पर खुला के द्वारा विवाह विच्छेद कराती हैं।
हदीस में पर्दा पर्दे का हुक्म कुरान की सूरः अजहाब में है। पर्दे के सम्बन्ध में मोहम्मद साहब ने कहा कि जब औरत बालिग हो जाय तो उसके जिस्म का कोई हिस्सा नजर नहीं आना चाहिए। ‘सिवाए चेहरे और कलाई के जोड़ तक हाथ के।‘ सूरः नूर के अनुसार पर्दा औरत और मर्द दोनों पर लाजि़म है। इस सम्बन्ध में इब्ने ज़रीर से रिवायत है कि मैंने मोहम्मद साहब से पूछा कि अचानक नज़र पड़ जाय तो क्या करें आप ने कहा कि नज़र फेर लो। - परदा अबुल आला मौद्दी। दूसरी हदीस में हज़रत बुरेदा रिवायत है मोहम्मद साहब ने हज़रत अली से कहा ऐ अली। एक नज़र के बाद दूसरी नज़र नहीं डालो। पहली नज़र तुम्हें माफ है और दूसरी नज़र की इजाजत नहीं है।
हदीस में शिक्षा: गुस्ताव ली बोन ने ला सिविलाइजेशन डेस अरब प्रकाशन में लिखा हे कि मुसलमानों की शिक्षा के प्रति भूख देखकर वह बहुत हैरान हुआ ‘‘विज्ञान जो कि दूसरों के द्वारा उपेक्षित किया गया, मुसलमानों ने इसका महत्व समझा।’’ मोहम्मद साहब ने कहा ’’इंसान वे हैं जो सीखते हैं और जानते हैं बाकी के सब भीड़ और किसी काम के नहीं हैं।’’ गुस्ताव ली बोन लिखता है कि मुसलमानों की तरह यदि दूसरे देश भी शिक्षा के प्रति इतने सजग रहते तब न जाने कहाँ पहुँच जाते। जब भी मुसलमान कोई शहर जीतते तो वहाँ सर्वप्रथम एक मस्जिद और विद्यालय बनाते और बड़ी जगहों पर ऐसे कई विद्यालय थे। मोहम्मद साहब ने इल्म हासिल करने के सम्बंध में मर्द, औरत की कोई खुसूसियत नहीं की। मोहम्मद साहब के शब्दों में ‘‘हर मुसलमान मर्द व औरत पर तालीम हासिल करना फर्ज़ है।’’
मोहम्मद साहब ने शिक्षा के महत्व को व्यक्त करते हुए कहा था। ‘तुमने अगर एक मर्द को पढ़ाया तो मात्र इक व्यक्ति को पढ़ाया। लेकिन अगर इक औरत को पढ़ाया तो इक खानदान को और इक नस्ल को पढ़ाया।‘ मोहम्मद साहब ने सलाह दी कि इल्म हासिल करने के लिए आयु रूकावट नहीं होनी चाहिए। बचपन से बुढ़ापे तक शिक्षा की ओर रूझान रखने से पूरी जिन्दगी शिक्षा ग्रहण की जा सकती है। कुरान मंे आलिम का दर्जा अन्य लोगों से ऊँचा बताया है इसलिए हज़रत मोहम्मद ने निर्देश दिया कि शिक्षा ग्रहण करने का कोई अवसर गंवाना नहीं चाहिए। मोहम्मद साहब ने आलिम की स्याही का पन्ना शहीद के खून से भारी बताया। उन्होंने कहा कि शोधकर्ता की स्याही इतनी कीमती है जितना शहीद का खून।- हदीस शिक्षा के सम्बन्ध में निम्न वाक्य है।
‘‘इल्म सीखो और लोगों को सिखाओ।’’
-हदीस
‘‘माँ-बाप का बेहतरीन उपहार औलाद की सही तालीम और तरबियत है।’’
      - हदीस
उपरोक्त हदीसों से यह मालूम होता है कि शिक्षा गृहण करने के आदेश मर्द और औरत दोनों के लिए हैं। इनमें कोई फर्क नहीं। कुरान और हदीस में औरत मर्द के इल्म मे भेद नहीं किया गया है। उस काल में औरतों के सीखने और ज्ञान प्राप्त करने की इस प्रवृत्ति के कारण कई विदुषी महिलाओं के नाम हमारे सामने आते हैं। ह0 खदीजा, ह0 आयशा आदि से विद्धान लोग मसले पूछने आया करते थे। बुखारी हदीस में उद्धृत है, ‘जो अपनी बांदी (नौकरानी) को शिक्षा देगा और फिर उसको आज़ाद करके उससे विवाह कर ले, तो उसको दोहरा अज्र मिलेगा।‘  हदीस में जब नौकरानी को शिक्षा देने की ताकीद की है तब पत्नी, बेटी और बहन को तालीम दिलाने के लिए मर्द को ताकीद करना अवष्यम्भावी था।
हदीस में स्त्री की आर्थिक स्थितिः सम्पत्ति का मालिक होने की प्रवृत्ति इंसान की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इस्लाम विशेष सीमाआंे के भीतर व्यक्गित सम्पत्ति की स्वीकृति देता है। इस्लामी आर्थिक व्यवस्था की खासियत यह है कि मोहम्मद साहब ने औरत को सम्पत्ति का अधिकार दिया है। इससे पहले अरब में औरतों को विरासत में कुछ नहीं मिलता था। इस्लाम व्यक्तिगत स्वतंत्रता को महत्व देता है क्यांेकि इस पर मनुष्य का विकास निर्भर है। रोज़ी कमाने के साधनों में व्यक्तिगत सम्पत्ति के अधिकार का हक देना मनुष्य की स्वतंत्रता के लिए जरूरी है। इस्लाम व्यक्तिगत सम्पत्ति पर समाज (सगे सम्बन्धियों, पड़ोसियों तथा गरीबों) का हक विभिन्न तरीकों जैसे ज़कात, खेरात, सदका आदि के द्वारा मानता है। जहाँ तक औरत का प्रश्न है इस्लाम औरत को धन अर्जित करने और विरासत का अधिकार देता है। पत्नी को पति के माल पर पूरा हक दिया गया है। वह उसक माल को पति के सामने और उसके पीछे खर्च कर सकती है परन्तु साथ ही निर्देश भी दिया गया है कि पत्नी अपव्यय नहीं करे।
इस्लाम औरत को कमाने का अधिकार भी देता है। औरतों को अपनी जरूरतों के लिए घर से बाहर जाने की इज़ाजत दी गयी है। मोहम्मद साहब ने कहा, बेशक अल्लाह तुम्हें अपनी आवश्कताओं के लिए घर से बाहर निकलने की आज्ञा देता है।  इस्लाम के प्रारम्भिक एवं खिलाफ़त युग में भी औरतांे के विभिन्न व्यवसाय करने के उदाहरण मिलते हंै, इसकी पुष्टि हदीस के द्वारा होती है। शरीयत औरत को इस काबिल देखना चाहती है कि वह अपने और अपने जैसे दूसरे इंसानों की खिदमत अपनी कमाई से कर सके। मोहम्मद साहब के काल मंे औरते कमाई करने के लिए मीलों पैदल चलती थीं। कुछ औरतें कड़ी मेहनत व कठिन शारीरिक श्रम भी करती थीं। ‘‘खदीजा और सौदा इसकी मिसाल है कि वे माताएं थी और उन्होंने समाज मे आर्थिक क्रियाकलापों को बढ़ाया।’’ खदीजा के धन से मोहम्मद साहब का समय बच गया और उन्होंने अपना समय सेवा में लगाया। सौदा, अपने चमड़े के काम के उद्योग से धन अर्जित करती थी। यह दोनों इसकी रौशन दलील है कि मोहम्मद साहब के सामने औरते आर्थिक क्रियाकलापों में लगी हुई थी। मोहम्मद साहब के बाद खिलाफत काल में भी औरतों के व्यापार करने के उदाहरण मिलते हैं। यदि पति अपनी पत्नी को खर्चा नहीं दे तो पत्नी उसको बिना खबर किये अपना और अपनी औलाद का खर्चा इसके माल में से ले सकती है। इस्लाम ने पुरुष को परिवार का व्यवस्थापक बनाया है, औरत और बच्चों का खर्च उठाने की जिम्मेदारी उसे सौंपी है।
हदीस में स्त्री की राजनैतिक स्थिति:मोहम्मद साहब औरत और मर्द को बराबरी के अधिकार देने के हिमायती थे। उन्होंने जब औरत को कमाने से और युद्ध भूमि में जाने से नहीं रोका तब वह उसे राजनीति से दूर क्यों रखेंगे। 1992 में मस्जिदे अक्सा के इमाम सैय्यद असद बूइज़ तमीमी जो कि मोहम्मद बिन अबुल बहाव के समर्थक हैं, ने पाकिस्तान में एक आम सभा में कहा कि एक योग्य मुसलमान औरत देश पर शासन कर सकती है। उन्होंने मल्काए शैब की हुक्मरानी का उदाहरण दिया जिसके शासन की कुरान में ताकीद की गयी है। कुरान में है कि मल्काए सबा अच्छे अन्दाज में हुकूमत करती है। जब कुरान औरतों की प्रशासनिक क्षमता को बता रहा है तब यह कैसे हो सकता है कि पैगम्बर ह0 मोहम्मद यह कहे कि औरत हुकूमत करने योग्य नहीं है। इतिहास गवाह है कि इस्लाम से पहले अरब में औरत हर तरफ के शोषण का शिकार थी, मोहम्मद साहब ने औरत को मर्द के बराबर अधिकार दिलाने की चेष्टा की। शोषण के इस लम्बे युग से गुजरने के कारण औरत मर्द से हर क्षेत्र में पिछड़ी हुई थी। ऐसी परिस्थिति में इस तरह की बात की नहीं की जाती होगी कि महिला भी राष्ट्राध्यक्ष बन सकती है। उस काल मे अपने पिछड़ेपन के कारण कोई औरत राष्ट्राध्यक्ष बनने के लिए अपना दावा ही नहीं रख सकी होगी। इसलिए औरत के शासन से सम्बन्धित किसी मुफ्ती ने कोई फतवा भी नहीं दिया होगा। कुरान और हदीस औरत की हुक्मरानी के विरूद्ध नहीं फिर आम लोगों की कैसे धारणा बन गयी कि औरत राष्ट्राध्यक्ष नहीं बन सकती।
आज जब स्थितियाँ बदल गयी हैं और औरतें शासन करने के लिए अपना अधिकार मांग रही हैं तब कुरान और हदीस का सहारा लेकर महिलाओं को शासन के अधिकार से वंचित करना न केवल उनके साथ अन्याय है बल्कि ये तथ्य गैर-इस्लामी है। महिलाओं के राजनीति में भाग लेने के सम्बन्ध में सैय्यद जलालुद्दीन उमरी लिखते हैं कि सहाबा के युग में औरतें कानूनी मसलों पर चर्चा और परिचर्चा करती थी तथा अपनी राय देती थी। कभी-कभी खलीफा स्वयं इनसे राय लिया करते थे और इनकी राय को महत्व देते हुए उस दस पर चलते थे। स्त्रियों ने अपने वक्त की राजनैतिक परिस्थितियों पर विशेष ध्यान दिया। खलीफाआंे औरा राज्यपालों को प्रशासन की कमियों से आगाह किया और सुधार के लिए सलाह दी।
हदीस में स्त्री हिंसा: इस्लाम में औरत से सम्बन्धित कुछ मसलों में जिनमे यह कहा जाता है कि औरत मर्द में फर्क करके मर्द को अधिक अधिकार दिये हैं, यदि उस दौर के समाजी ढांचे का ध्यान रखे तो उस समय के लिए यह बाते व्यवहारिक थी परन्तु आज उनका अर्थ खत्म हो गया है। इस्लाम में मर्द को स्थान-स्थान पर हिदायत दी है कि औरत के साथ अच्छा व्यवहार करें। हजरत अबु हुरैरा से रिवायत है मोहम्मद साहब ने कहा कि मुसलमानों में से कामिल इमान वाले वे हैं जिनका अखलाक अच्छा है और तुममें से अच्छे वे हैं जो अपनी बीवियों के साथ अच्छे हैं। फिर किस तरह इस्लाम में औरतों के साथ मारपीट और (इस्लाम) को बर्दाश्त किया जा सकता है।
इस्लाम के प्रारम्भ में अरब के लोग बात-बात पर तलवार निकाल लेते थे। आपस में लड़ाई-झगड़े, मार-पिटाई बहुत होती थी परन्तु आज के दौर की संस्कृति और सभ्यता पिछले युग के समाजिक संस्कृति से भिन्न है। मानव अधिकार युग में स्त्री को पीटने की बात असभ्य लोग ही कर सकते हैं। फिर जिस शब्द का अर्थ पीटना या मारना निकाला जा रहा है उसका दूसरा अर्थ उदाहरण देकर समझाना भी है। औरतों से मारपीट करना मकरूह है। मोहम्मद साहब ने दसवीं हिजरी में अपने अन्तिम हज के खुत्बे में कहा था ‘‘मुसलमानों, औरतों का इस तरह तुम पर हक है जैसा कि तुम्हारा औरतों पर हक है। औरतों के साथ भलाई करो।’’ - मुकम्मल तारीख इस्लाम: षोकत अली फहमी पृष्ठ 128 मोहम्मद साहब महिला अधिकारों के समर्थक थे। हजरत अली के अनुसार मोहम्मद साहब के कारण उस जमाने में लोग अपनी औरतों से ऊँची आवाज में बात करने से भी डरते थे फिर किस तरह यह माना जा सकता है कि मोहम्मद साहब ने औरतों को पीटने की आज्ञा दी थी। मोहम्मद साहब ने माँ, बहन, बेटी, पत्नी सबसे भलाई की नसीहत की। प्रत्येक महिला की अपनी शख्तियत और पसन्द होती है। पुरूष को उसकी शख्तियत की इज्जत करना चाहिए और उसको खुश रखने के लिए उसकी पसंद नापसंद का ध्यान रखना चाहिए। पत्नी को अपने अधीन करने की कोषिष नहीं करते हुए उसकी खुशी का विशेष ध्यान रखना चाहिए। मोहम्मद साहब अपनी पत्नियों की भावनाओं का खास ध्यान रखते थे।
सन्दर्भ सूची

  1.  कुरान, 13/38।
  2.  कुरान, 16/72।
  3.  अलबकरा- 228, कुरान।
  4.  अन्निसाः 32 (कुरान)
  5.  कुरान,ः 2/228।
  6.  सुरः निसा-3, कुरान।
  7.  सूरः निसाः 120, कुरान।
  8.  कुरान, 4ः3।
  9.  कुरान 4ः/29।
  10.  सुर, निसाः 35।
  11.  सुस्तुन्निसईः 19।
  12.  महिला एवं बालकानून, अंजनि कान्त, पृष्ठ-124।
  13.  सूरः मजहाबः 59।
  14.  सूरः नूरः13
  15. कुरान/ 33ः 59।
  16.  गलतफहमियों का निवारणः डा0 जाकिर नायिन मधुर संदेश संगम, जामिया नगर, 2008 नई दिल्ली।
  17.  सुरः जमरः 9 कुरान।
  18.  सूरः नमल, 32-34, कुरान।
  19.  इम्दाद अल फताबीः जिन्द पाँच, किताब या तयब्बुक बिब्हदीस पृष्ठ सं0 103।
  20. 20ण् 9ः 71, कुरान।
  21. 21ण् मुस्लिम पुरूष:पोषाक का शेषक,डाॅ0फरजाना अमीन आजाद,संघी प्रकाशन जयपुर-302017, 2005वेस्टर मार्क
  22. 22ण् असगर अली इंजीनियर
  23. 23ण् सैयद अमीर अली दि इथिक्स आॅफ इस्लाम (कलकत्ता 195) पृष्ठ 49-50।
  24. 24ण् ‘‘इल्म सीखों और लोगों को सिखाओं।‘‘- हदीस।
  25. 25ण् बुखारी हदीस इंटरनेट, दिसम्बर 2009, स्टार न्यूज।
  26. 26ण् बुखारी मुस्नद अहमद, हदीस।