“काशते प्रकाशते सदा सर्वदा आदिकालात् सा काशी।” ऐतिहासिकों की दृष्टि में काशी संसार की सबसे प्राचीन नगरी है। इसका वेदों में कई जगह उल्लेख है। ‘आप इव काशिना संगृभीताः’, ‘मद्यवन! काशिस्तिे’, ‘यज्ञः काशीनां भरतः सात्वतामिव आदि। पुराणों के अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थान है। इस प्रकार इस शोधपत्र में काशी के महत्व एवं महात्म्य का विस्तृृृृृृृत वर्णन किया गया है।

“जो पृथ्वी पर होने पर भी पृथ्वी से सम्बद्ध नहीं है ( साधारण पृथ्वी नहीं है- तीन लोक से न्यारी है )” जो अथः स्थित ( नीची होने पर भी) स्वर्गादि लोकोंसे भी अधिक प्रतिष्ठित एवं उच्चत है, जो जागतिक सीमाओं से आबद्ध होने पर भी सभी का बन्धन काटने वाली मोक्षदायिनी है, जो सदा त्रिलोकपावनी भगवती भागीरथी के तट पर सुशोभित तथा देवताओं में सुशोभीत है, वह त्रिपुरारि भगवान विश्वनाथ की राजनगरी सम्पूर्ण जगत् को नष्ट होने से बचायें’। नारद पुराण कहता है-
वाराणसी तु भुवनत्रयसारभूता
रम्या नृणां सुगतिदा किल सेव्यमाना।
अत्रागता विविधदुष्कृतकारिणोऽपि
पापक्षये विरजसः सुमनः प्रकाशाः।।
काशी परम रमणीय ही नहीं त्रिलोकी का सार है, वह सेवन किये जाने पर मनुष्यों को सदृगति प्रदान करती है। अनेक पापाचारी भी यहाँ आकर पापमुक्त होकर देववत् प्रकाशित होने लगते हैं। कहा जाता है कि अवन्तिका आदि सात मोक्षपुरियाँ हैं, पर वे कालान्तर में काशी प्राप्ति कराके ही मोक्ष प्रदान कराती है। काशी ही एक पुरी जो साक्षात् मोक्ष देती है-
अन्यानि मुक्तिक्षेत्राणि काशीप्राप्तिकराणि च।
काशी प्राप्य विमुच्येत नान्यथा तीर्थकोटिभिः।।
‘काशीखण्ड’ का कहना है कि मैं कब काशी जाऊँगा, कब शंकर जी का दर्शन करूंगा-
इति ब्रुवाणः सततं काशी वासफलं लभेत।
जिनके हृदय में काशी सदा विराजमान है, उन्हें संसार सर्प के विष से क्या भय?
येषां हृदि सदैववास्ति काशी त्वासीविषाग्ङदः।
संसाराशिविषविषं न तेषां प्रभवेत् क्वचित्।।
जिसने काशी यह दो अक्षरांे का अमृत कानों से पान कर लिया उसे गर्भजनित व्यथा कथा नहीं सुनने पड़ते-
श्रुतं कर्णामृतं येन काशीत्यक्षरयुग्मकम।
न समाकण्र्यत्येव स पुनर्गर्भजां कथाम।।
जो दूर से भी काशी सदा जपता रहता है, वह अन्यत्र रहकर भी मोक्ष प्राप्त कर लेता है-
काशी काशीति काशीति जपतोरस्य संस्थितिः।
अन्यत्रापि सतस्तस्य पुरो मुक्तिः प्रकाशते।।
काशी के विभिन्न क्षेत्रांे में किये गये स्नान, दान, जप, तप, अध्ययनादि की अनन्त महिमा है। प्रारम्भ से ही काशी शिक्षा संस्कृति से साथ-साथ कला एवं कौशल के प्रमुख केन्द्र के रूप में विकसित हुआ, आठवीं-सातवीं शदी ई.पू. में रचित बौद्ध जातक कथाएँ काशी की साक्ष्य है। उनसे स्पष्ट होता है कि उस काल तक यह नगरी सम्पूर्ण देश में शिक्षा के केन्द्र के रूप में प्रसिद्धि पा चुकी थी। काशी की शिक्षा के क्षेत्र में योगदान काल के साथ भी अक्षुण्ण रहा। इसी कारण इसे “ब्रह्मर्धन” कहा गया, जिसका अर्थ शिक्षा का केन्द्र है।
धनवंतरि जिन्हें भारतीय आयुर्विज्ञान का जनक माना जाता है और जो अपने प्रसिद्धि के कारण बाद में विष्णु के अवतार के रूप में पूजे गए बनारस के प्रारंभिक शासकों में से एक थे। इस “अमरपुरी” से सम्बन्धित दूसरे महापुरुष भारतीय शल्य शास्त्र के जनक सुश्रुत थे, जिन्होंने बनारस के एक राजपुरुष से शिक्षा ली थी। बौद्ध जातक कथाओं में इस नगरी का भारतीय संस्कृति में महत्वपूर्ण योगदान के अनेक उल्लेख है। सर्वदा से काशी नगरी दर्शन शास्त्र एक धार्मिक विचारधारा का प्रमुख केन्द्र तो रही, साथ ही साथ भारतीय संस्कृति एवं कलाओं में भी इसका महत्वपूर्ण योगदान बना रहा। यहाँ बुद्ध पूर्वकाल में भारतीय संगीत का प्रसिद्ध घराना था, जिसका नेतृत्व जाने-माने संगीताचार्य कर रहे थे, ये अपने शास्त्र में देशभर में अनोखे थे। संगीत एवं कला की यह उच्च परंपरा विभिन्न रूपों में चलती रही है। सरगुजा राज्य से प्राप्त प्राचीन नाट्यशाला के अवशेषों में मिले अभिलेख जोगीमारा अभिलेख से भी मौर्यकाल में काशी की संगीत एवं नाट्य की उच्च परंपरा का प्रमाण मिलता है। इस पुरी के कुटीर उद्योग आज की भाँति बुद्ध- पूर्वकाल में में भी विकसित थे।
इसी काल में यहाँ के एक राजा दिवोदास ब्राह्मण-धर्मी देवी-देवताओं के विरूद्ध खड़े हुए और उन्होंने अपने राज्य में हिन्दू देवों में विरोध में प्रचार किया। इन प्रसंगों से स्पष्ट होता है कि प्रारंभिक काल में बनारस आन्दोलनकारी विचारों के लिए भी अग्रणी था।
काशी व्यापार का भी केन्द्र था। इसकी भौगोलिक अर्थात् गंगा तट पर स्थित इस दृष्टि से लाभप्रद थी। यह नदी काशी को उपजाऊ क्षेत्रों मगध (बिहार) एवं बंगाल से जोड़ती है, यही नदी जलमार्ग से पश्चिम, उत्तर-पश्चिम, मध्य भारत एवं दकन के विकसित नगरों एवं व्यापारिक केन्द्रांे से भी इसका सम्पर्क था। बनारस से इन नगरों के साथ व्यापार चलता रहा है। बनारस बुद्ध पूर्व काल से ही अपने वस्तु उद्योग के लिए प्रसिद्ध हो गया था, यह परम्परा आज भी चल रही है।
दशावश्वमेध घाट के निकट गंगातट पर ही मिर्जा राजा जयसिंह ने वेधशाला का निर्माण कराया। विश्वेश्वर या काशी विश्वनाथ काशी के प्रधान देव है अथवा काशी उनके नगरी है और काशी में आने के बाद प्रत्येक व्यक्ति का कष्ट दूर हो जाता है।
सांसारिक मानव के कल्याण हेतु ही भवगान शंकर ने ब्रह्मा की सृष्टि से भिन्न ‘काशी’ को स्वयं प्रकट किया और उसे अपने त्रिशूल पर अवस्थित कर रखा है। शास्त्रोक्त धर्म का पालन करते हुए, जो लोग मृत्यु को प्राप्त करते है उन्हें पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता है, इस तथ्य की पुष्टि हमारे धर्मशास्त्रों में उल्लिखित है-
‘असारे खलु संसारे सारमेतच्चतुष्ट्यम्।
काश्यां वासः सतां सग्ङो गग्ङम्भः शम्भूपूजनम्।।
द्वादशज्योतिर्लिग्ङो के दर्शन जो पुण्य प्राप्त होता है, वह एक मात्र काशी के प्रमुख लिग्ङो के दर्शन और विश्वनाथ दर्शन से प्राप्त होता है।
‘सर्वधर्म लं सम्यक काश्यांश्राद्धयेपदामनः।
काशी ब्रह्मेति विख्यात यद्विवर्तो जगद्भ्रमः।।
अर्थात् हृदय से जब काशी में श्रद्धा हो जाती है, तब अपने द्वारा किये गये सभी धर्मों का फल पुनीत रूप में प्राप्त हो जाता है। काशी का जो त्रयात्मक स्वरूप है, उसकी व्याख्या आध्यात्मिक, आदिभौतिक, रूप में भी समय-समय पर हमारे विद्वानों द्वारा पुष्टित एवं पल्लवित है, जिसका कि दर्शन हमारे अन्यान्य वेद पुराणों में उल्लिखित है। जैसा कि ज्ञात है चतुर्वेद स्वयं भगवान के स्वरूप है। श्री मद्भागवत्कार के अनुसार उनके श्वास प्रश्वास का स्वरूप ही स्वयं प्रकाशरूपी ज्ञान है।
काशी को संसार की सबसे प्राचीन नगर कहा जाता है, जो अपनी स्थापना के बाद से अभी तक एक जीवित नगर बना हुआ है। इसके अनेक नाम बताये जाते है, जिनमें काशी और वाराणसी ये दो नाम सर्वाधिक प्रचलित है। ऐसा लगता है कि ये दोनों ही नाम क्रमशः कास तथा वरणा घास नामक वस्पतियों पर आधारित थे, क्योंकि अभी भी खजुरी, अमवा, पिपरी या पिपरहवा, बरगदवा जैसे नाम वाले हजारों गाँव मिल जायेंगे। ‘काशते इति काशी’ अथवा वरणा एवं असी के बीच ‘वाराणसी’ लोक मानस में राजा बनार की राजधानी बनारस आदि व्याख्याएँ परवर्ती सोच की देन लगती हैं, पुरातत्व भी इसकी पुष्टि करता दिखता है।
काशी आज भी ‘अमरपुरी है जिसने काल की चुनौतियों को स्वीकार करते हुए प्राचीन परम्पराओं को जीवित रखा है।
भगवती भागीरथी के बाये तट पर बसा हुआ यह नगर अब और ही चतुर्दिक विस्तार को प्राप्त होता जा रहा है। समूचे विश्व में सांस्कृतिक राजधानी के नाम से प्रसिद्ध यह विद्या का केन्द्र प्रायः संस्कृत के ग्रंथों में यत्र-तत्र अपनी आभा को समेटे दिखाई देता है। अतः पुरातन काल से ही काशी नगरी विलक्षणता को प्राप्त है। धर्मग्रन्थों में यह न केवल ऋषि मुनियों, हरिश्चन्द्र जैसे देवतुल्य राजाओं की भी कर्मभूमि रही है। यहाँ दूर-दूर से आकर लोग शिक्षा ग्रहण करते है और अनेक व्यापार करते है। यह शिक्षा का महत्वपूर्ण केन्द्र है और काशी से ही अनेक राज्यों में व्यापार भी किये जाते है, ऐसा कहा जाता है कि काशी में आने मात्र से ही व्यक्ति के सारे कष्ट दूर हो जाता है। ऐसी मान्यता है कि काशी में मरने वाला व्यक्ति सीधे मोक्ष में जाता है उसके लिए मोक्ष के द्वारा खुले होते है।
इस प्रकार यह काशी शिक्षा का केन्द्र व्यापार का माध्यम तथा व्यक्ति को कष्ट को दूर करने वाला और अन्तिम अवस्था में मोक्ष प्रदान करने वाला है जेसा कि अनेक धर्मग्रन्थों में भी लिखा गया है।
सहायक ग्रन्थ-सूची