महाभारत में अष्टावक्रीयोपाख्यान का निहितार्थ


                                     डा0 सुरेश चन्द्र चैबे

स्ंक्षेपिका


सृष्टि के सर्ग की सार्थकता मानव से है। वृक्ष, पशु एवं मनुष्य तीनों पृथ्वी पर हैं, किन्तु वृक्ष में जीवन है गति नही, पशु में गति है किन्तु दिशा नही, मनुष्य में ही जीवन, गति एवं दिशा तीनों विद्यमान होती हैं। गर्भ से ही मनुष्य में विद्या का स्फुरण हो सकता है। विद्या अग्नि के समान होती है। विद्या से ही मानव जीवन को गति और दिशा दोनों प्राप्त होती है। मनुष्य के लिए विद्या और धन दोनों परमावश्यक हैं। सन्तानोत्पत्ति से वंश परम्परा चलती है तथा पितृऋण से मुक्ति भी। यही महाभारत के अष्टावक्रीयोपाख्यान का सन्देश है‘‘।

की वर्ड:संस्कृत-सहित्य, महाभारत, अष्टावक्रीयोपाख्यान ।


भारत की महाभारत से, महाभारत की ऋषियों से तथा ऋषियों की पहचान तेजस्विता से जानी जाती रही है। महाभारत में अष्टावक्रीयोपाख्यान की चर्चा मिलती है। उस युग में कहोड मुनि के पुत्र अष्टावक्र और महर्षि उद्दालक नन्दन श्वेतकेतु थे। ये दोनो महर्षि समस्त भूमण्डल के वेद वेत्ताओं में श्रेष्ठ थे। अष्टावक्र और श्वेतकेतु आपस में मामा और भांजा लगते थे1  इनमें श्वेतकेतु मामा थे। श्वेतकेतु ने मानवरूप धारिणी माता सरस्वती देवी का प्रत्यक्ष दर्शन किया था और स्वयं कहा था कि ‘‘ मैं वाणी स्वरूपा आपके तत्व को यथार्थ रूप से जानता हूँ2।
        महर्षि उद्दालक का कहोड नाम से विख्यात एक शिष्य था, जो बड़े संयम नियम से रहकर आचार्य की सेवा किया करता था। उसकी सुपात्रता और सेवा से प्रसन्न होकर गुरु ने सम्पूर्ण वेद शास्त्रों का ज्ञान कराने के साथ ही अपनी पुत्री सुजाता को भी पत्नी रूप से समर्पित कर दिया3। कुछ समय के बाद-

तस्या गर्भः समभवदग्निकल्पः सोऽधीयानं पितरं चाप्युवाच।
सर्वां रात्रिमध्ययनं करोषि नेदं पितः सम्यगिवोपवर्तते।

        अर्थात् उस सुजाता का वह गर्भ अग्नि के समान तेजस्वी था। एक दिन स्वाध्याय में लगे हुए अपने पिता कहोड मुनि से उस गर्भस्थ बालक ने कहा ‘पिताजी आप रात भर वेदपाठ करते हैं, फिर भी आपका वह अध्ययन अच्छी प्रकार शुद्ध उच्चारणपूर्वक नही हो पाता’। गर्भस्थ शिशु के द्वारा इस प्रकार टोके जाने से शिष्यों के मध्य अपमान का अनुभव करते हुए अपने ही उस गर्भस्थ बालक को शाप दे दिया4।

’’यस्मात् कुक्षौ वर्तमानो ब्रवीषि,
तस्माद् वक्रो भवितास्यष्टकृत्वः‘‘।

        अर्थात् अरे तू अभी गर्भ में रहकर ऐसी टेढ़ी बातें बोलता है, अतएव तू आठ अङ्गों से टेढ़ा हो जायेगा‘‘। पिता के इस शाप के अनुसार महर्षि आठ अङ्गों से टेढ़े होकर पैदा हुए। इसलिए अष्टावक्र नाम से उनकी प्रसिद्धि हुई।5 सुजाता का गर्भ दशवें महीने में था उस समय उन्हें चिन्ता हुई कि मैं धनहीन नारी हूँ। मेरा खर्च कैसे चलेगा। इसकी चर्चा अपने पति कहोड मुनि से की कि आपके पास थोङा भी धन नही है, प्रसवकाल के इस संकट से कैसे रक्षा होगी? पत्नी की इस इच्छा की पूर्ति हेतु कहोड मुनि राजा जनक के दरबार में गये। उस समय शास्त्रार्थी पण्डित बन्दी ने उनको वादविवाद में हराकर जल में डुबो दिया। सुजाता के पिता उद्दालक को जब यह समाचार मिला तो उन्होंने सुजाता को सब कुछ बता दिया किन्तु कहा कि बेटी! अपने पुत्र से इस वृतान्त को सदैव दूर रखना। जन्म लेने के बाद अष्टावक्र को अपने पिता के बारे में कुछ भी पता नही था। वे अपने नाना उद्दालक को ही अपना पिता और उनके पुत्र श्वेतकेतु को अपना भाई मानते थे 6। श्वेतकेतु और अष्टावक्र समवयस्क थे।
        एक दिन जब अष्टावक्र की आयु 12 वर्ष की थी, वे पितृ तुल्य उद्दालक मुनि की गोद में बैठे थे, उसी समय श्वेतकेतु वहाँ आये और रोते हुए अष्टावक्र का हाथ पकड़कर उन्हे दूर खींच ले गये इस प्रकार अष्टावक्र को दूर हटाकर श्वेतकेतु ने कहा- नायं त्वाड‐्कः पितुरिति‘7। यह तुम्हारे बाप की गोदी नही है। उस समय श्वेतकेतु के कटूक्ति ने अष्टावक्र के हृदय को गहरी चोट पहुँचायी। इससे उन्हे अपार दुःख हुआ। वे तुरन्त माता के पायस पहुँचे तथा पिता के विषय में पूछा। पीडि़त सुजाता ने शाप के भय से सम्पूर्ण रहस्य बता दिया। बालक अष्टावक्र को जानकारी होने के बाद भी उन्होने अपने मामा श्वेतकेतु को यह रहस्य न बताकर बल्कि ज्ञान पिपासा को शान्त करने हेतु राजा जनक के यज्ञ में जाने के लिए तैयार किया। इसके बाद दोनो बालक राजा जनक के समृद्धिशाली यज्ञ में गये। अष्टावक्र की यज्ञमण्डप के मार्ग में ही राजा से भेंट होती है, किन्तु राजसेवक उन्हें राजा के मार्ग से हटाने लगते हैं इस पर अष्टावक्रजी बोले 8-
अन्धस्य पन्था बधिरस्य पन्थाः
स्त्रियस्य पन्था भारवाहस्य पन्थाः।
राज्ञः पन्था ब्राह्मणेनासमेत्य
समेत्य तु ब्राह्मणस्यैव पन्थाः।।

        अर्थात् हे राजन्! जब तक ब्राह्मण से सामना न हो तब तक अन्धे का मार्ग, बहरे का मार्ग, स्त्री का मार्ग,बोझ ढोने वाले का मार्ग, तथा राजा का मार्ग उस उसके जाने के लिए छोड़ देना चाहिए, किन्तु यदि ब्राह्मण अथवा (स्नातक) सामने मिल जाय तो सबसे पहले उसी को मार्ग देना चाहिए। इसकी चर्चा स्मृतिकार मनु ने भी किया है कि यदि कोई रथ आदि पर बैठ कर जा रहा ह,ै नब्बे वर्ष से अधिक आयु का व्यक्ति हो, रोगी हो, भार वहन करने वाला हो, स्त्री के लिए, जिसका समावर्तन संस्कार हो चुका हो, ऐसे (स्नातक) के लिए, राजा के लिए, और बारात के दुल्हे के लिए, रास्ता छोड‐ देना चाहिए9। यहाँ स्मृतिकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यदि मार्ग में उक्त सभी साथ ही उपस्थित हो जायं तो क्या करना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि सभी पथिको में स्नातक एवं पार्थिव अधिक पूजनीय होते हैं। जैसा कि ‘ब्राह्मणं दशवर्षं तु शतवर्षं तु भूमिपम्’10। अर्थात् ब्राह्मण यदि 10 वर्ष का हो तथा क्षत्रिय 100 वर्ष का हो तो ब्राह्मण अर्थात् स्नातक ही श्रेष्ठ हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अष्टावक्र की उक्ति में ब्राह्मण से तात्पर्य स्नातक ही है। अष्टावक्र की बात सुनकर राजा जनक ने ‘न पावको विद्यते वै लघीयानिन्द्रोऽपि नित्यं नमते ब्राह्मणानाम्’ 11। अर्थात् ’अग्नि कभी छोटी नही होती , देवराज इन्द्र भी ब्राह्मणों के आगे नतमस्तक होते हैं। यह कहकर मार्ग प्रशस्त कर देते हैं परन्तु द्वारपाल कहता है कि हम बन्दी के आज्ञापालक हैं , आप हमारी कही गयी बात सुनिये। इस यज्ञशाला में बालक ब्राह्मण प्रवेश नही कर पाते हैं। जो बूढ़े और बुद्धिमान ब्राह्मण हैं उन्ही का यहाँ प्रवेश होता है 12।   
      इसके बाद अष्टावक्र और द्वारपाल के मध्य वार्तालाप में प्रश्न उपस्थित होता है कि बूढ़ा और बुद्धिमान कौन है? अष्टावक्रजी कहते हैं-हमने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया है तथा हम वेद के प्रभाव से सम्पन्न हैं। इसके साथ ही हम गुरुजनों के सेवक , जितेन्द्रिय तथा ज्ञानशास्त्र में परिनिष्ठित भी हैं। अवस्था में बालक होने के कारण ही किसी बालक को अपमानित करना उचित नही है, क्योंकि आग की छोटी सी चिन्गारी भी यदि स्पर्श कर जाय तो वह जला डालती है 13।
      अष्टावक्रजी ने कहा- द्वारपाल! केवल शरीर बढ़ जाने से किसी को बड़ा नही समझा जाता। जैसे सेमल के फल की गाॅठ बढ़ने पर भी सारहीन हो के कारण वह व्यर्थ ही है। छोटा और दुबला पतला वृक्ष भी यदि फलों के भार से लदा है तो उसे ही वृद्ध (बड़ा) जाना चाहिए। जिसमें फल नही लगते उस वृक्ष का बढ़ना भी नही ंके बराबर है। जिस व्यक्ति के सिर के बाल पक गये हैं, इतने मात्र से वह बूढ़ा (बड.ा) नही होता अवस्था में बालक होने पर भी जो ज्ञान में बढ़ा हो उसी को देवगण वृद्ध मानते हैं। अधिक वर्षों की अवस्था होने से, बाल पकने से, धन बढ़ जाने से और अधिक भाई-बन्धु हो जाने से भी कोई बड़ा नहीं हो सकता। हमारे ऋषियों ने नियम बनाया है कि हम ब्राह्मणों में जो अङ्गों सहित सम्पूर्ण वेदो का अध्ययन करने वाला तथा वक्ता है, वहीं बड़ा है 14। इस प्रकार बालक के वचनों को सुनकर द्वारपाल राजा से मिलने का उपाय सुझाता है। राजा जनक के पास पहुँचकर अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे राजन्! वर्तमान समय में केवल आप ही उत्तम यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले हैं अथवा पूर्वकाल में एक मात्र राजा ययाति ऐसे हो चुके हैं 15। अतः ययाति के बाद राजा जनक ही उनके समान यज्ञानुष्ठान करने वाले हुए।
      राजा जनक के दरबार के बन्दी नामक विद्वान से मिलने के लिए दृढ. निश्चयी बालक को देखकर उनकी परीक्षा लेने के लिए राजा ने कहा- जो पुरुष तीस अवयव, बारह अंश, चैबीस पर्व और तीन सौ साठ अरों वाले पदार्थ को जानता है, उसके प्रयोजन को समझता है वह उच्च कोटि का ज्ञानी है। इसका उत्तर देते हुए अष्टावक्रजी ने कहा-जिसमें बारह अमावस्या, और बारह पूर्णिमा रूपी चैबीस पर्व, ऋतु रूप छः नाभिः, मासरूप बारह अंश और दिनरूप तीन सौ साठ अरें, वह निरन्तर घुमने वाला संवत्सर रूप कालचक्र आप की रक्षा करें 16। पुनः राजा ने दूसरा प्रश्न किया 17- 
वडवे इव संयुक्ते श्येनपाते दिवौकसाम्।
कस्तयोर्गर्भमाधत्ते गर्भं सुषुवतुश्च कम।।

      अर्थात् जो दो घोडि़यों की भाँति संयुक्त रहती है एवं जो बाज पक्षी की भाँति   हठात् गिरने वाली है। उन दोनो के गर्भ को देवताओं में से कौन धारण करता है तथा वे दोनो किस गर्भ को उत्पन्न करती हैं। इसका उत्तर देते हुए अष्टावक्रजी कहते हैं 18-
मा स्म ते ते गृहे राजन्छात्रवाणामपि ध्रुवम्।
वातसारथिरागन्ता गर्भं सुषुवस्तश्च तम्।।

      अर्थात् वे दोनो तुम्हारे शत्रुओं के घर पर कभी न गिरें। वायु जिसका सारथि है वह मेघ रूप देव ही इन दोनो के गर्भ को धारण करने वाला है और ये दोनों इस मेघरूप गर्भ को उत्पन्न करने वाले हैं। इसका उत्तर प्रश्नोपनिषद् से स्पष्ट होता है 19-
       भाव यह है कि दो तत्त्व जिनको वैदिक भाषा में रयि और प्राण के नाम से कहा गया है। अंग्रजी में जिनको पाजिटिव (अनुलोम) और निगेटिव (प्रतिलोम) कहते हैं। ये स्वभाव से ही संयुक्त रहने वाले हैं। इनका ही व्यक्तरूप विद्युत शक्ति है। उसे गर्भ की भाँति   मेघ धारण किए रहता है संघर्ष से वह प्रकट होती है और आकर्षण होने पर बाज की भाँति   गिरती है। जहाँ गिरती है वहा सबको भष्म कर देती है, इसलिए यह कहा गया है कि वह कभी आपके शत्रुओं के घर पर भी न गिरे। इन दो तत्त्वों के संयुक्त शक्ति से ही मेघ की उत्पत्ति होती है। इसलिए कहा गया है कि उस मेघरूप गर्भ को ये उत्पन्न करते हैं।
      तीसरा एवं अन्तिम प्रश्न राजा जनक पुनः पूछते हैं 20-
किंस्वित् सुप्तं न निमिषति किंस्विज्जातं न चोपति ।
कस्य स्वित हृदयं नास्ति किं स्विद् वेगेन् वर्धते।।

      अर्थात् सोते समय कौन आँख नहीं मूदता, जन्म लेने के बाद किसमें गति नही होती, किसके पास हृदय नही होता और कौन वेग से बढ.ता है? इसका उत्तर देते हुए अष्टावक्रजी कहते हैं 21-
मत्स्यः सुप्तो न निमिषत्यण्डं जातं न चोपति।
अस्मनो हृदयं नास्ति नदी वेगेन वर्धते।।

      अर्थात् मछली सोते समय आँख  नही मँूदती, अण्डा उत्पन्न होने पर गतिहीन रहता है, पत्थर को हृदय नहीं होताऔर नदी वेग से बढ.ती है।
      इस प्रकार बालक अष्टावक्र की अद्भुत क्षमता को देखकर तथा उनके रहस्यात्मक उत्तर को सुनकर राजा जनक निरूत्तर होकर कहते हैं-हे ब्रह्मन्! आपकी की शक्ति तो देवताओं के समान है । मैं आपको मनुष्य नही मानता आप बालक भी नही हैं। मैं तो आपको वृद्ध भी हीं समझता हूँ। वाद विवाद करने में आप समान दूसरा कोई नहीं है। अतएव  अपको यज्ञमण्डप में जाने के लिए द्वार प्रदान करता हूँ। यही बन्दी है जिनसे आप मिलना चाहते हैं 22।
       इसके बाद अष्टावक्रजी कहते हैं- हे राजन्! हमने सुना है कि आपके बन्दी नाम से प्रसिद्ध कोई विद्वान है जो वाद विवाद के मर्म को जानने वाले कितने ही वृद्ध ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ में हराकर वश में कर लेते हैं और फिर आपके ही दिए हुए विश्वसनीय पुरूषों द्वारा उन सबको निःशंक होकर पानी में डुबवा देते हैं। मैं ब्राह्मणों के समीप यह समाचार सुनकर अद्वैत ब्रह्म के विषय में वर्णन करने के लिए यहाँ आया हूँ। यज्ञमण्डप में पहुँचकर  अष्टावक्रजी ने कहा-मैं इन सबके बीच में वादियों में प्रधान बन्दी को नही पहचान पाता हूँ। यदि पहचान लूँ तो अगाध जल में हंस की भाँति उन्हें अवश्य पकड़ लूँगा23।
     उनके द्वारा अनेक प्रकार की ललकार सुनकर बन्दी उपस्थित होता है। बन्दी के सामने आ जाने पर राज सभा में गरजते हुए अष्टावक्र ने कुपित होकर कहा-मेरी पूछी हुई बात का उत्तर तुम दो और तुम्हारी बात का उत्तर मैं देता हँू। इस प्रकार बन्दी और अष्टावक्र के बीच शास्त्रार्थ प्रारम्भ हो जाता है। यह वाद विवाद एक संख्या से प्रारम्भ होकर त्रयोदश पर समाप्त होता है। बन्दी एक अग्नि, एक सूर्य, एक इन्द्र तथा यमराज को एक ही कहता है तो अष्टावक्र जी इन्द्र और अग्नि को दो देवता मित्र- भाव वाले, परस्पर मित्र भाव वाले नारद और पर्वत भी दो ही है, अश्विनी कुमारो की संख्या दो है। रथ के पहिये भी दो होते है तथा विधाता ने एक दूसरे के जीवन साथी पति-पत्नी भी दो ही बनाये है 24।         
     इस प्रकार त्रयोदश संख्या तक विवाद चलता है अन्त में बन्दी कहता है, त्रयोदशी तिथि उत्तम बतायी गयी है तथा यहा पृथ्वी तेरह द्वीपो से युक्त है-त्रयोदशी तिथिरूक्ता प्रशस्ता त्रयोदश द्वीपवती मही च।
     इतना श्लोकार्ध कहकर बन्दी चुप हो जाता है जिसके शेष आधे श्लोक की पूर्ति अष्टावक्र ने इस प्रकार की, त्रयोदशाहानि ससार केशी त्रयोदशादीन्यतिच्छन्दांसि चाहुः 25।।
        अर्थात् केशी नामक दानव ने तेरह दिनों तक युद्ध किया था 26। वेद में जो अति शब्द विशिष्ट छन्द बतलाये गये हंै, उनका एक एक पाद तेरह आदि अक्षरों से सम्पन्न होता है -जैसे अति जगती छन्द का एक एक पाद तेरह अक्षरों का होता हैै। इसके बाद बन्दी चुप हो जाता है। बन्दी के पराजित होने पर सभा में उपस्थित विद्वानों द्वारा अष्टावक्र की जयघोष होने लगती है। अष्टावक्र जी कहते है महाराज इसी बन्दी ने पहले बहुत से बा्रम्हणों को शास्त्रार्थ में पराजित करके पानी में डुबवाया है अतएव इसकी भी वही गति होनी चाहिए जो इसके द्वारा दूसरों की की गयी है।
      बन्दी भी सामान्य नही था। इसके पूर्व राजाजनक को यह पता नही था किन्तु वह अपना परिचय देता है कि मै वरूण का पुत्र हँू। मेरे पिता जी के यहाॅ भी द्वादश वार्षिक यज्ञ हो रहा था। उस यज्ञ के अनुष्ठान के लिए ही जल में डुबोने के बहाने कुछ चुने हुुए ब्राह्मणों को मैने वरूण लोक में भेज दिया है। वे सभी वरूण का यज्ञ देखने के लिए वहा गये है। अब पुनः लौटकर वापस आ रहे है । मै पूजनीय ब्राह्ण अष्टावक्र्र का सम्मान करता हूँ, जिनके कारण मेरा अपने पिता जी से मिलना होगा, किन्तु अष्टावक्र जी बन्दी की कोई बात सुनना नही चाहते है। वे अपने निर्णय पर अडिग हंै । वे कहते हंै महाराज इस बन्दी के जीवित रहने से मेरा कोई प्रयोेजन नही है । यदि असके पिता वरूण देव है तो उनके पास जाने के लिए इसे निश्चय ही जलाशय में डुबो दीजिए, किन्तु बन्दी रंचमात्र भी भयभीत नही होता है। और कहता है कि ये अष्टावक्र भी दीर्घकाल से नष्ट हुए अपने पिता कहोड का भी दर्शन करेगे। उसी समय वे सभी ब्राह्मण जो बन्दी द्वारा जल में डुबाये गये थे, वरुण द्वारा पूजित होकर राजा जनक के पास प्रकट हो गये। उपस्थित हुए ब्राह्मणों में से मुनि कहोड ने कहा-
इत्यर्थमिच्छन्ति सुतान्जना जनक कर्मणा।
यदहं नाशकं कर्तुं तत् पुत्रः कृतवान मम्।।
उताबलस्य बलवानुत बालस्य पण्डितः।
उत वा विदुषो विद्वान् पुत्रो जनक
जायते 27    
                         
      अर्थात् हे जनकराज! लोग सत्कर्मों द्वारा पुत्र पाने की इच्दा रखते है। क्योकि जो कार्य मैं नही कर सका, उसे मेरे पुत्र ने कर दिखाया। कभी कभी निर्बल के बलवान मुर्ख के पण्डित तथा अज्ञानी के ज्ञानी पुत्र उत्पन्न हो जाते हैं। भाव यह है कि प्रत्येक पिता पुत्र रत्न प्राप्त करना चाहता है, किन्तु उसी पुत्र का जन्म लेना सार्थक है, जो पिता की इच्छाओं की पूर्ति में सहायक होकर उसका सम्मान बढ़ाते हुए प्रसिद्धि प्राप्त करे। अन्त में पिता कहोड द्वारा यह ज्ञात होने पर कि समङ्गा नदी में स्नान करने से आप शाप मुक्त होगें तथा आप का अंग सीधा हो जायेगा। अष्टावक्र जी समङ्गा नदी में स्नान करते हैं और सीधे अंगों वाले हो जाते हैं। इस प्रकार मुनि कुपित होकर अपने ही गर्भस्थ बालक को शाप देते हैं और उसी के सत्कर्म से प्रसन्न होकर शाप मुक्ति का उपाय भी बतलाते हैं।
      इस प्रकार अष्टावक्रीयोपाख्यान से यह सन्देश प्राप्त होता है कि विद्या का संस्कार जन्मजात होता है, जो गर्भावस्था से प्रस्फुटित हो सकता है। विद्वत्ता अग्नि के समान तेजस्वी होती है। अग्नि स्वभाव से ही दहन करने वाला है, तो भी वह ज्ञेय विषय को तत्काल जानने में समर्थ है। परीक्षा के समय जो सदाचारी और सत्यवादी होते हैं उनके घरों या शरीरों को अग्नि नहीं जलाता। वैसे ही सन्त लोग भी विनम्र भाव से बोलने वाले बालको के वचनों में से जो सत्य और हितकर बात होती है उसे चुन लेते हैं, जिसके प्रमाण स्वरूप यहाँ जनक दिखायी पड़ते हैं। मानव जीवन में विद्वता के साथ ही धन भी अति आवश्यक है। सुजाता की धनहीनता ही कहोड मुनि को राजा जनक के दरबार में बन्दी के पास पहुॅचा देती है। बन्दी भी सामान्य व्यक्ति नही था। वह वरूण का पुत्र होने के कारण पिता के द्वादश वार्षिक यज्ञ के सम्पादन हेतु ही विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित करके चुनता है। यज्ञ के लिए ब्राह्मणों के चुनाव का यह अद्भुत उपाय प्रस्तुत किया गया है। बारह वर्षीय बालक अष्टावक्र ने शास्त्रार्थ से यह सिद्ध कर दिया है कि ‘‘ तेजसां न वयः समीक्ष्यते’’ अर्थात् तेजस्वियों की अवस्था नही देखी जाती। पिता का दर्शन करना अष्टावक्र और बन्दी दोनो का लक्ष्य था। दोनो को एक साथ पिता के दर्शन होते हैं और दोनो ही पितृऋण से उऋण हो जाते हैं। इसी से पुत्र जन्म सार्थक होता है।

सन्दर्भः

  1.  तस्मिन् युगे ब्रहृमकृतां वरिष्ठावास्तां मुनी मातुलभागिनेयौ।अष्टावक्रश्चैव कहोडसूनुरौद्दालकिः श्वेतकेतुः पृथिव्याम्।। महाभारत-द्वितीय खण्ड-वनपर्व अ0 132/3
  2.  साक्षादत्रश्वेतकेतुर्ददर्श सरस्वती मानुषदेहरूपाम्।वेत्स्यामि वाणीमिति सम्प्रवृतां सरस्वती श्वेतकेतुर्बभाषे।।वही-132/2
  3.  वही- 132/8
  4.  वही- 132/11
  5.  स वै तथा वक्र एवाभ्यजायदष्टावक्रः प्रथितो वै महर्षिः।वहीं 132/12
  6.  महाभारत वनपर्व अध्याय 132/ 13-16
  7.  वहीं- 132/18
  8.  वहीं- 133/1
  9.  च्क्रिणो दशमीस्थस्य, रोगिणो भारिणः स्त्रियाः।स्नातकस्य च राज्ञश्च पन्था देयो वरस्य च।।तेषां तु समवेतानां मान्यौ स्नातकपार्थिवौ।राजस्नातकयोश्चैव स्नातको नृपमानभाक्।।मनुस्मृति-अध्याय-2/138-139।
  10.  मनु0 अ0 2/135
  11.  महाभारत-वनपर्व- अ0 133/2