भारत में भूमि सुधार कार्यक्रमों का सिंहावलोकन

 डा0 बाबूलाल राम

अभिषद् सदस्य,

वी0कुँ0सिं0वि0, आरा (बिहार)।

सारांश

संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमि संबंधी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘‘भारत में भूमि सुधार हाल के अधिनियम संख्यात्मक दृष्टि से सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। इतने अधिनियम कही भी नहीं बनाए गए हैं। यह अधिनियम लाखों करोड़ों कृषकों पर प्रभाव डालते हैं और भूमि के विशाल क्षेत्र को अपने दायरे में सम्मिलित करते हैं लेकिन ऐसा होने पर भी भूमि सुधार कार्यक्रमों की प्रगति धीमी रही है।’’ इसलिए प्रो0 दांतावाला का मत है कि ‘‘अब तक भारत में जो भूमि सुधार हुए हैं या निकट भविष्य में होने वाले हैं वे सभी सही दिशा में हैं, लेकिन क्रियान्वयन के अभाव में इनके परिणाम संतोषजनक नहीं रहे।’’इस शोधपत्र में भारत में भूमि सुधार कार्यक्रमों के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गयी है।

की वर्डः भूमि सूधार, भारत, कार्यक्रम।

 

           भूमि सुधारों के द्वारा कृषि विकास भारतीय आयोजन का मूल दर्शन रहा है। यद्यपि स्वतंत्रता के पूर्व भूमि सुधारों के संबंध में कुछ कदम उठाए गए थे। लेकिन स्वतंत्रता के पश्चात आयोजन काल में भूमि सुधारों के प्रति सरकार अत्यधिक संवेदनशील रही है। जमींदारों एवं मध्यस्थों के उन्मूलन के लिए बनाए गए अधिनियम, भूमि सुधारों के क्षेत्र में सरकार का एक क्रांतिकारी कदम था। इस कदम से जमींदारों एवं मध्यस्थों के सफाए के साथ ही किसानों के शोषण का अंत हो गया। किसानों का सरकार से सीधा सम्पर्क स्थापित हो गया। लगान के नियमन के कारण किसानों से मनमानी लगान वसूलने का सिलसिला समाप्त हो गया साथ की काश्त सुरक्षा अधिकारों के कारण कृषकों के भूमि से बेदखली होने का भय भी समाप्त हो गया। जोतों की अधिकतम सीमा निर्धारण संबंधी कानूनों के बनने एवं उसके क्रियान्वयन होने से बड़े भू-स्वामियों की सीमा से अतिरिक्त भूमि का भूमिहीनों एवं कृषक मजदूरों के बीच वितरण किए जाने की क्रियाओं से भू-स्वामित्व के संबंध में असमानताएँ कम हुई है। भूमिहीनों को भू-स्वामित्व का अधिकार मिलने से भूमि सुधार एवं कृषि विकास के लिए प्रेरणा मिली है। अब वे अधिक उत्साह से कृषि कार्य करने लगे हैं जिसका कृषि उत्पादकता पर सकारात्मक परिणाम देखने को मिल रहा है। जोतों के उपविभाजन एवं अपखण्डन की समस्या का निदान चकबंदी के द्वारा किया जा रहा है। यद्यपि स्वतंत्रता के बाद भूमि सुधारों के कई कार्यक्रम बड़े ही उत्साह से प्रारंभ किए गए हैं जिसमें जमींदारी उन्मूलन, जोतों की सीमाबंदी, चकबंदी, सहकारी कृषि, लगान का नियमन एवं काश्त अधिकारों की सुरक्षा प्रमुख हैं। भारत में भूमि सुधार के कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में कुछ कमियाँ अवश्य रही हैं जिससे इसकी प्रगति बहुत ही धीमी गति से हुई है।

भारत में भूमि सुधार कार्यक्रमों की कमियाँ या आलोचनाएँ तथा धीमी प्रगति के कारण:

भूमि सुधार अधिनियमों एवं कार्यक्रमों में विभिन्नता:- भूमि सुधारों के लिए जो अधिनियम बनाए गए और कार्यक्रम तैयार किए गए वे अलग-अलग राज्यों के लिए भिन्न-भिन्न थे। इस कारण इन्हें राष्ट्रीय स्तर पर लागू नहीं किया जा सका। राज्यों के लिए भूमि सुधार कानूनों की एकरूपता का न होना भूमि सुधार कार्यक्रमों की प्रगति में सबसे बड़ी अवरोधक सिद्ध हुआ है। इस कारण भारत में भूमि सुधार कार्यक्रमों की प्रगति अत्यंत ही धीमी और असंतोषजनक रही है। भूमि सुधार कार्यक्रमों के प्रभावशाली क्रियान्वयन का अभाव:- भारत में भूमि सुधार कार्यक्रमों की धीमी प्रगति का प्रमुख कारण भूमि सुधार के कार्यक्रमों का प्रभावपूर्ण ढंग से क्रियान्वयन का न किया जाना है। इस कारण भूमि सुधारों का लाभ वास्तविक लाभार्थियों को नहीं मिल सका है। Asian Drama के लेखक गुन्नार मिर्डल Gunnar Myrdal ने लिखा है ‘‘भूमि सुधार कानून जिस तरह से क्रियान्वित किए गए हैं उससे सामान्यतः उनकी (कानूनों की) भावनाओं और अभिप्राय को हताश होना पड़ा है।’’ वे आगे लिखते हैं भूमि संबंधी कानूनों के पास हो जाने से काश्तकारों में बेदखली की एक लहर-सी दौड़ गई है और तथाकथित ‘खुद काश्त’ के लिए भूमि का पुनग्र्रहण किया गया है।

दोषपूर्ण खुद काश्त की परिभाषा: भूमि सुधार कानूनों में खुद काश्त को गलत रूप में परिभाषित किया गया है। कहीं भी यह नहीं कहा गया कि अपने श्रम से की जाने वाली कृषि कार्य खुद काश्त है। अधिकांश राज्यों के कानूनों में देख-रेख Personal supervision को खुद काश्त मान लिया गया। इसमें भी स्वयं देख-रेख का कोई उल्लेख नहीं है। खुद काश्त की परिभाषा में भूस्वामी के परिवार के सदस्यों द्वारा देख-रेख को खुद काश्त मान लिया गया। खुद काश्त की इस दोषपूर्ण परिभाषा के आधार पर बहुत बड़े पैमाने पर वास्तविक काश्तकारों को जमीन से बेदखल कर दिया गया है। यह भूमि सुधार के उद्देश्यों के बिल्कुल विपरीत था।

खुद काश्त की सीमा:- एक तरफ जहाँ खुद काश्त को गलत रूप में परिभाषित किया गया वही खुद काश्त के लिए जमींदारों एवं मध्यस्थों को अपने लिए बहुत बड़ी भूमि रखने की छूट मिल गई, जो भूमि सुधार के लिए जमींदारों एवं मध्यस्थों के उन्मूलन के उद्देश्यों के बिल्कुल विपरीत था। इस कारण भारत में भूमि सुधार का कार्यक्रम पंगु हो गया और जमींदारों की उपस्थिति को खत्म करने में नाकाम रहा।

भूमि का हस्तांतरण:- भूमि सुधार कानूनों के अंतर्गत जोतों की अधिकतम सीमा निर्धारण के कानून विभिन्न राज्यों द्वारा बनाए गए हैं, लेकिन जमींदार एवं बड़े भूस्वामी इन कानून की सीमाओं का उल्लंघन करने में सफल भी रहे हैं। जोतों की सीमाबंदी कानूनों से बचने के लिए जमींदारों ने काफी बड़ी भूमि अपने परिवार के सदस्यों के नाम हस्तांतरित कर दी है। इस तरह के गलत भू-हस्तांतरण को रोकने के लिए कोई कानून नहीं था और जहाँ था वहाँ भी खुद काश्त की उदार परिभाषा के कारण जमींदारों ने इनसे बचने के लिए कई रास्ते निकाल लिए थे। इस कारण जोतों की सीमाबंदी के कानूनों की प्रभावशीलता में काफी कमी आई है लेकिन भू-सीमाबंदी कानूनों को दृढ़ता से लागू करने के लिए गंभीर प्रयास नहीं किए गए हैं।

काश्तकार की दोषपूर्ण परिभाषा:- काश्त अधिकार सुरक्षा अधिनियमों के अंतर्गत वास्तविक काश्तकारों को भूस्वामित्व का अधिकार देने की बात की गई है। यानि भूमि पर स्वामित्वाधिकार उसके जोतने वाले की होनी चाहिए अर्थात काश्तकार भूमि का मालिक होना चाहिए। उRrर प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे बड़े राज्यों में बंटाई के आधार पर खेती करने वालों Share Croppers को काश्तकार का दर्जा नहीं दिया गया है। हालांकि इन राज्यों में बंटाई के आधार पर कृषि कार्य करने वाले काश्तकारों की संख्या बहुत अधिक है। इन काश्तकारों के काश्त अधिकारों के संरक्षण के काश्त सुधार से संबंधित कानूनों का प्रयोग नहीं किया जा रहा है जो दुर्भाग्यपूर्ण है। यह सच है कि भारत में मौखिक काश्तकारी का प्रचलन बहुत ही अधिक है। वास्तविक काश्तकारों का नाम भूमि अभिलेख में दर्ज नहीं है। इस कारण से काश्तकार अपने काश्त अधिकारों की सुरक्षा के लिए न्यायालयों की शरण नहीं ले सकते है और सदैव काश्त अधिकार की सुरक्षा से वंचित रहते हैं।

स्वैच्छिक समर्पण की समस्या:- काश्त अधिकार सुरक्षा के क्षेत्र में ‘स्वैच्छिक समर्पण’ अधिकार अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति का द्योतक है। अनुभवजन्य अध्ययनों से पता चलता है कि भूस्वामियों द्वारा वास्तविक काश्तकारों को मजबूर किया जाता है कि वे अपनी इच्छा से भूमि पर से अधिकार छोड़ दंे। ऐसा करने के लिए काश्तकारों को डराया-धमकाया जाता है और विरोध करने की स्थिति में उनकी पिटाई भी की जाती है। आर्थिक एवं सामाजिक हैसियत की दृष्टि से बेहद कमजोर काश्तकार किसी भी तरह से भूस्वामियों के समृद्ध विरासत और सामाजिक प्रभुत्व का सामना करने की स्थिति में नहीं होते हैं। इसलिए इन काश्तकारों ने भूस्वामियों से पंगा लेने के बजाय भूमि का स्वेच्छा से त्याग कर देना ही बेहतर समझा और ऐसा किया भी। यह भी सच है कि अगर कोई काश्तकार स्वेच्छा से अपने काश्त अधिकार का परित्याग करता है तो कानून भी उसकी कोई मदद नहीं कर सकता है। इस तरह की क्रियाओं से बड़े पैमाने पर काश्त अधिकारों से असुरक्षित किया जाता है और भूमि सुधार के कार्यक्रम अपने उद्देश्य की पूर्ति में असफल हो जाते हैं। काफी समय गुजर जाने के बाद इस समस्या के प्रति सरकार के कान खड़े हुए और चैथी पंचवर्षीय योजना में यह सुझाव दिया गया कि वास्तविक काश्तकार द्वारा स्वैच्छिक समर्पण की भूमि पर राज्य सरकार का अधिकार होगा यानि स्वैच्छिक समर्पण केवल राज्य के पक्ष में ही की जा सकती है। इसका उद्देश्य स्वैच्छिक समर्पण की भूमि को दोबारा उस भूस्वामी के हाथ में जाने से रोकना था जिसको पूर्व में भूस्वामित्व का अधिकार प्राप्त था। लेकिन यह सुझाव हास्यापद बन कर रह गया क्योंकि कुछ एक राज्यों ने ही इस सुझाव को स्वीकार किया।

 अधिकतम जोत सीमा कानूनों की कमियाँ:- जोतों की अधिकतम सीमा निर्धारण के लिए जो कानून बनाए गये वे अलग-अलग राज्यों के लिए अलग-अलग थे। इसके अतिरिक्त एक ही राज्य के अलग-अलग हिस्सों में भी कानूनों में एकरूपता नहीं थी। फिर इन कानूनों में रियायतों एवं छूटों की लम्बी फेहरिस्त थी। अधिकतम जोत सीमा कानूनों में रह गये छिद्रों का भूस्वामियों द्वारा उपयोग बड़ी ही चालाकी से अपने लाभ के लिए किया गया। सीमाबंदी कानूनों में एकरूपता लाने के लिए जुलाई 1972 में राज्य मुख्यमंत्रियों की गोष्ठी बुलाई गई थी लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। यह घटना ठीक वैसे ही थी जैसे स्तबल के सारे घोड़े चोरी हो जाने के बाद ताला लगा दिया जाय। यही कारण था कि विभिन्न किस्म के हस्तांतरणों एवं भ्रष्ट तरीकों की वजह से बहुत कम भूमि ‘अतिरिक्त भूमि’ के रूप में प्राप्त हो सकी।

        इस प्रकार भारत में भूमि सुधारों के लिए बनाए गए अधिनियम सामाजिक हित में क्रांतिकारी कदम थे लेकिन किसी भी कानून की सफलता और विफलता उसे लागू करने की सरकार की राजनैतिक इच्छाशक्ति एवं दृढ़ संकल्पशक्ति पर निर्भर करती है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि भूमि सुधार कानूनों का लक्ष्य ग्रामीण क्षेत्रों के सम्पŸिा संबंधा में आमूल परिवर्तन किया जाना था। इसलिए ऐसे कानूनों एवं अधिनियमों का तो भूस्वामियों एवं जमींदारों द्वारा तीव्र विरोध किया जाना ही था और हुआ भी। भारत में राज्य सरकारें, बड़े किसानों एवं भूस्वामियों के दबाव में भूमि सुधार कार्यक्रमों को दृढ़ता से लागू करने में अक्षम रही हैं।

           भूमि सुधारों जैसे प्रगतिवादी कानूनों को बनाने और उनका सही कार्यान्वयन करने के लिए कठोर राजनैतिक निर्णयों और प्रभावी राजनैतिक समर्थन, नियंत्रण तथा दिशा-निर्देश की जरूरत है। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में जो सामाजिक-आर्थिक स्थितियाँ मौजूद हैं उन्हें देखते हुए भूमि सुधारों के क्षेत्र में तब तक कोई खास प्रगति होने की उम्मीद नहीं है जब तक उपर्युक्त राजनीतिक इच्छाशक्ति न हो। यह दुर्भाग्य की बात है कि देश में इस राजनैतिक इच्छाशक्ति का अभाव है। नीति व कानून बनाने तथा उनका कार्यान्वयन करने में जो खाई पाई जाती है यह इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। स्वतंत्रता के बाद सार्वजनिक जीवन के किसी भी क्षेत्र में सिद्धान्त व व्यवहार के बीच तथा नीति-घोषणा व उसके कार्यान्वयन के बीच इतनी बड़ी खाई नहीं रही जितनी कि भूमि सुधारों के क्षेत्रों में पाई जाती है। यदि दृढ़ और सुस्पष्ट राजनैतिक इच्छाशक्ति होती तो बाकी सभी कठिनाइयों पर विजय पाई जा सकती थी। परन्तु यह इच्छाशक्ति के अभाव का ही परिणाम है कि छोटी-मोटी रूकावटें भी भारतीय भूमि सुधार कार्यक्रमों के रास्ते में चट्टानें बन कर खड़ी हो गई। देश में मौजूद राजनैतिक शक्ति संरचना से इससे ज्यादे की उम्मीद रखना विवेकपूर्ण निर्णय का हिस्सा नहीं हो सकता है। जब तक सरकार भूमि सुधार अधिनियमों एवं कार्यक्रमों की कड़वी घूंट पचा नहीं पाती है तब तक भूमि सुधार कानून, नीतिगत फैसले एवं कार्यक्रम दस्तावेजों तक सिमट कर रह जाएंगे।

 सन्दर्भ सूची:

1. के0 एन0 राज: इण्डियन इकोनोमिक ग्रोथ

2. गुन्नार मिर्डल: एशियन ड्रामा

3. मिश्रा एवं पुरी: इण्डियन इकोनामी

4. ए0 एम0 खुसरो: इकोनामिक आफ लैण्ड रिफार्म एण्ड फार्म साइज

5. सेन्ट्रल लैण्ड रिफार्म कमिटि रिपोर्ट, 1972

6. एच0 डी0 मालवीय: लैण्ड रिफार्म इन इण्डिया

7. जे0 पी0 मिश्रा: कृषि अर्थशास्त्र