आचार्य भट्टोद्भट का काव्यशास्त्रीय विश्लेषण


डा0 आनन्द कुमार दीक्षित


स्ंक्षेपिका

अलंकार शास्त्र पर उद्भट का प्रभाव उल्लेखनीय है। उन्होंने भामह के प्रभाव क्षेत्र पर अपना प्रभाव सिद्ध कर दिया है। भामह से लेकर मम्मट तक के अलंकारशास्त्र के विकास क्रमरूपी शृंखला में उद्भट प्रमुख कड़ी का कार्य करते हैं। उनकी अलंकार शास्त्र सम्बन्धी समस्त धारणाओं की जानकारी का आधार हमें तभी मिल सकता है जब कि उनकी समस्त रचनायें उपलब्ध हों। परन्तु उनकी रचनाओं के नाम पर हमें प्राप्त है ‘‘काव्यालंकारसारसंग्रह’’। अर्थात् काव्यालंकारों का सार संक्षेप। उसी के आधार पर प्रमुखता से हम उद्भट का काव्यशास्त्रीय विश्लेषण प्रस्तुत कर सकते हैं।


की वर्ड: उद्भट, काव्यालंकारसारसंग्रह काव्यशास्त्र, गुण, अलंकार, रस।


भारतवर्ष में काव्यशास्त्र की अक्षुण्ण परम्परा है उसमें काश्मीर के आलंकारिकों की परम्परा में उद्भट एक प्रतिष्ठित नाम है यह तो मानना ही होगा क्योंकि सभी साहित्य मर्मज्ञ चाहे वे आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त रुय्यक और मम्मट ही क्यों न हों उन्होंने सशृद्ध आचार्य उद्भट का उल्लेख किया है। अलंकारशास्त्र के क्षेत्र में तो उनका सक सम्प्रदाय ही चलता था- यथा- उद्भटादयः (पं0राजजगन्नाथ कृत रसगंगाधर) औद्भटाः (आनन्दवर्धनकृत ध्वन्यालोक) उद्भटमतानुयायिनः (रुय्यक कृत अलंकार सर्वस्व) उद्भटप्रभृतयः (प्रतापरुद्रयशोभूषण, रत्नापण) आदि उद्धरण इसके प्रमाण हैं। इसी प्रकार व्यक्तिविवेक टीका में भी रुय्यक ने ‘भट्टोद्भटप्रभृतिभिः’ आदि के द्वारा उन्हें सम्मान प्रदान किया है। परवर्ती लेखकों ने उद्भट का उल्लेख तथा उनके उद्धरण अनेक स्थानों पर प्रयुक्त किए हैं। परन्तु यहाँ उन सबको प्रस्तुत करने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।

1. गुण और अलंकारों का प्रायशः साम्य:
 
अलंकार सर्वस्वकार राजानक रुय्यक ने स्पष्ट रूप से तथा आचार्य मम्मट ने अनूदित रूप से आचार्य उद्भट के गुण और अलंकार सम्बन्धी विचारधारा का उल्लेख करते हुए कहा है कि उद्भट आदि प्रायः गुण और अलंकारों में साम्यदही मानते हैं। यथा राजानक रुय्यक के शब्दों में-
‘‘उद्भटादिभिस्तु गुणालंकाराणां प्रायशः साम्यमेव सूचितम्। 
विषयमात्रेण भेद प्रतिपादनात्। संघटनाधर्मत्वेन शब्दार्थधर्मत्वेन चेष्टेः। 

तदेवमलंकारा एव काव्ये प्रधानमिति प्राच्यानांमतम्।1
अर्थात् उद्भट आदि ने तो गुण और अलंकारों की प्रायशः समानता ही सूचित की है। अलंकार और गुण में भेद का प्रतिपादन केवल विषय को लेकर किया है, (गुण) संघटना के धर्म के रूप में, (और अलंकार) शब्द तथा अर्थ के धर्म के रूप में, उन्हें अभीष्ट हैं। इस प्रकार काव्य में अलंकार ही प्रधान है यह प्राचीन आलंकारिकों का मत है।
आचार्य मम्मट ने आचार्य उद्भट के इस मत का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए कहा कि आचार्य मम्मट उस विचारधारा के पोषक हैं जिसमें माना जाता है कि गुण काव्य में समवाय सम्बन्ध से रहते हैं अर्थात् गुण काव्य के नित्य धर्म हैं और अलंकार काव्य में संयोग सम्बन्ध से रहते हैं अर्थात् वे काव्य के अनित्य धर्म हैं।
आचार्य उद्भट का कहना है कि उक्त अन्तर लौकिक अलंकारों को सम्मुख रखकर किया गया है अर्थात् हारादि अलंकारों का शरीरादि के साथ संयोगसम्बन्ध और शौर्यादि गुणों का आत्मा के साथ संयोगसम्बन्ध नहीं अपितु समवायसम्बन्ध होता है। इसलिए लौकिक गुण और अलंकारों में भेद माना जा सकता है। अर्थात् जिस प्रकार लौकिक अलंकार तो शरीर से विलग भी किए जा सकते हैं और पुनः शरीर पर धारण किए जा सकते हैं। क्या काव्य के अलंकार भी लौकिक अलंकारों की तरह काव्य शरीरशब्दार्थ से प्रथक किए जा सकते हैं और वाह्य अलंकारों की भांति एक बार विलग करके उनका अस्तित्व प्रथक कर पुनः उन्हीं लौकिक अलंकारों की भांति संबद्ध किया जा सकता है? यदि ऐसा नहीं। तब फिर क्यों नहीं अलंकार भी गुण की ही भांति शब्द और अर्थ के नित्य धर्म माने जा सकते?
आचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्त शिरोमणि जी ने काव्य प्रकाश की टीका में अष्टम उल्लास में गुण अलंकार विवेचन के सन्दर्भ में उद्भट के शब्दों में ही भामहविवरण में आये इस प्रसंग को प्रस्तुत किया है।  यथा-
‘समवायवृत्या शौर्यादयः संयोगवृत्तया तु हारादयः इत्यस्तु गुणालंकाराणां भेदः, ओजः प्रभृतीनाम् अनुप्रासोपमादीनां चोभयेषामपि समवायवृत्तया स्थितिरिति गड्डलिका प्रवाहेणैवेषां भेदः।2
चूंकि गड्डलिका का अर्थ भेड़ होता है अतः गड्डलिका प्रवाह का अर्थ हुआ भेड़चाल इस प्रकार इसका अभिप्राय है कि भट्टोद्भट के मतानुसार गुण और अलंकार में कोई भेद नहीं है, उसमें जो लोग भेद मानते हैं वह तो भेड़चाल मात्र है। इस प्रकार आचार्य उद्भट का गुण और अलंकारों का अभेदवादी मत स्पष्ट होता है।
डाॅ0 नारायणदास बनहट्टी3 महोदय का विचार है कि आचार्य उद्भट गुण और अलंकारों में साम्य मानते हैं। उनके अनुसार गुण और अलंकारों में यदि कोई अन्तर है तो केवल इतना कि वे काव्य के अलग-अलग तत्वों से सम्बन्धित हैं। गुण शब्द और अर्थ के साथ दोनों से समष्टि रूप में प्रयुक्त रहते हैं जबकि अलंकार भिन्न-भिन्न रूप से या तो शब्द से ही सम्बन्धित होता है यथा- अनुप्रास, यमक आदि। अथवा अर्थ से ही यथा- उपमा उत्प्रेक्षा आदि। न कि शब्द और अर्थ दोनों के साथ सम्मिलित रूप से। केवल यही कारण है जिससे गुण और अलंकारों में पार्थक्य संभव है अन्यथा वे पूर्णरूपेण समान हैं। परन्तु उद्भट के समकालीन आचार्य वामन गुण तथा अलंकारों में भेद मानते हैं। उन्होंने अपने ग्रंथ ‘काव्यालंकारसूत्र’ के तृतीय अधिकरण के प्रथम अध्याय में कहा है-
‘‘काव्यशोभायाः कत्र्तारो धर्मा गुणाः।4
ये खलु शब्दार्थयोः धर्माः काव्य शोभां कुर्वन्ति ते गुणाः। ते च ओज प्रसादादयः। न यमकोपमादयः। कैवल्येन तेषामकाव्यशोभा करत्वात्। ओजः प्रसादादीनान्तु केवलानामस्ति काव्यशोभाकरत्वमिति। तदतिशयहेतवस्त्वलंकाराः। 3/1/2
तस्याः काव्यशोभायाः अतिशयस्तदतिशयः, तस्य हेतवः। तुशब्दो व्यतिरेके। अलंकाराश्च यमकोपमादयः। अत्रश्लोकौ-
युवतेरिवरूपमङ्गं काव्यं स्वदते शुद्धगुणं तदप्यतीव।
विहितप्रणयं निरन्तराभिः सदलंकार विकल्प कल्पनाभिः।।
यदि भवति वचश्च्युतं गुणेभ्यो वपुरिव यौवनवन्ध्यमंगनायाः।
अपि जनदयितानि दुर्भगत्वं नियतमलंकारणानि संश्रयन्ते।।
पूर्वे नित्याः। 3/1/3
पूर्वेगुणाः नित्याः। तैर्विना काव्यशोभानुपपत्ते।5

अर्थात् काव्य शोभा को करने वाले धर्मगुण कहलाते हैं। शब्द अथवा अर्थ के जो धर्म काव्य की शोभा के जनक हैं। वे गुण कहलाते हैं और वे गुण ओज प्रसादादि ही होते हैं। यमक आदि शब्दालंकार और उपमा आदि अर्थालंकार उस काव्य शोभा के उत्पादक न होने से गुण नहीं कहे जा सकते हैं। क्योंकि ओज प्रसादादि गुणों के अभाव में केवल यमक अथवा उपमा आदि अलंकार काव्य के शोभादायक नहीं हो सकते। जबकि ओज प्रसादादि गुण तो यमक उपमा आदि के बिना भी काव्य के शोभाधायक हो सकते हैं, इसलिए वे ही गुण कहे जा सकते हैं।
अलंकार काव्य की शोभा में वृद्धि करने वाले धर्म को कहते हैं। जैसे- युवती के सौन्दर्यादि गुण युक्त होने पर ही अलंकार शोभा में वृद्धि कर सकते हैं, वास्तविक सौन्दर्याभाव में तो अलंकार भी व्यर्थ हो जाते हैं तथा उसके सौन्दर्य की वृद्धि नहीं कर सकते। ठीक इसी प्रकार काव्य में ओज प्रसादादि गुणों की अनुपस्थिति में यमक, उपमा आदि अलंकार काव्य के शोभा वर्धक नहीं हो सकते। गुण तथा अलंकार का दूसरा भेद है कि गुण नित्य या अपरिहार्य हैं, पर अलंकार अपरिहार्य नहीं हैं अर्थात् काव्य में अलंकार के बिना तो कार्य चल सकता है परन्तु गुणों के अभाव में काव्य व्यवहार ही संभव नहीं। ऐसा वामन का विचार है। निष्कर्षतः गुण और अलंकार में निम्नलिखित दो प्रकार का अन्तर प्राप्त होता है।
1. काव्य की शोभा के जनक धर्मगुण कहलाते हैं और गुणों द्वारा उत्पादित उस काव्य की शोभा के वृद्धिकारक धर्म अलंकार कहे जाते हैं अर्थात् गुण काव्य के स्वरूपाधायक धर्म हैं और अलंकार उसके उत्कर्षाधायक धर्म हैं।
2. काव्य में गुणों की स्थिति अपरिहार्य है, परन्तु अलंकारों की नहीं।
       आचार्य उद्भट के गुणालंकार विवेचन से भिन्न ध्वन्यालोककार आचार्य आनन्दवर्धन ने गुण और अलंकारों में भेद प्रतिपादित करते हुए कहा है-
तमर्थमवलम्बते येऽङ्गिनं ते गुणाः स्मृताः।
अङ्गाश्रितास्त्वलंकारा, मन्तव्याः कटकादिवत्।।6

अर्थात् काव्य के आत्मभूत रसादिरूप ध्वनि के आश्रित रहने वाले धर्मगुण कहे जाते हैं तथा काव्य के अंगभूत शब्द तथा अर्थ के धर्म अलंकार। इस प्रकार आचार्य आनन्दवर्धन गुणों को रसाश्रित तथा अलंकारों को शब्द तथा अर्थ के आश्रित मानकर उनका अन्तर स्पष्ट करते हैं।
उपरोक्त वामन तथा आनन्दवर्धन कृत गुण तथा अलंकार भेद की विचारधारा को बल प्रदान करते हुए आचार्य मम्मट ने आचार्य उद्भट के मत का खण्डन किया है। उनका मत है कि गुण और अलंकार के भेद को भेड़चाल मात्र कहना असंगत है क्योंकि गुण रस के उत्कर्षाधायक, रस के अव्यभिचारी और रसमात्रनिष्ट धर्म हैं। अलंकार उनसे भिन्न हैं। वे रस के बिना भी रह सकते हैं। रस होने पर कभी उसके पोषक हो सकते हैं और कभी नहीं भी। अतः गुण और अलंकार भिन्न-भिन्न हैं।7 आचार्य मम्मट के अनुसार गुण का स्वरूप-
ये रसस्याङिगनो धर्माः शौर्यादयइवात्मनाः।
उत्कर्षहेतवस्ते स्युरचलस्थितयो गुणाः।।8

अर्थात् आत्मा के शौर्य आदि धर्मों के समान (काव्य के आत्मभूत) रस के जो अपरिहार्य और उत्कर्ष हेतुक धर्म हैं वे गुण कहलाते हैं।
इस प्रकार गुण के लक्षण में रसनिष्ठत्व और रस का उत्कर्षक धर्म समाविष्ट हो जाते हैं परन्तु अलंकारों में ये दोनों धर्म नहीं पाये जाते। रस के अभाव में भी शब्दालंकारों की स्थिति होने से इनमें रसाव्यभिचारित्व नहीं है और न वे अव्यभिचारेण रसोपकारक ही होते हैं इसलिए अलंकार में गुण के उपरोक्त लक्षणों की अतिव्याप्ति नहीं होती। यह आचार्य मम्मट के अलंकार लक्षण से स्वयं सिद्ध होता है।
उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्द्वारेण जातुचित्।
हारादिवदलङकारास्तेऽनुप्रासोपमादयः।।9

अर्थात् जो काव्य में विद्यमान उस अंगी रस को शब्द तथा अर्थ रूप अंगों के द्वारा नियमेन अथवा सर्वथा नहीं अपितु कभी-कभी उपकृत (उत्कर्ष युक्त) करते हैं वे अनुप्रास और उपमा आदि शब्दालंकार तथा अर्थालंकार शरीर के शोभाधान द्वारा परम्परया शरीरी (आत्मा) के उत्कर्षजनक हार आदि दैहिकी अलंकारों के समान काव्य के अलंकार होते हैं।
निष्कर्षतः गुण तथा अलंकार इसलिए परस्पर भिन्न हैं कि यदि गुण का आश्रय काव्य का अंगी या आत्मा रस है तो अलंकार का आश्रय काव्य के अंग या
शरीर रूपी शब्द और अर्थ। दूसरा अन्तर है कि गुण जिस प्रकार नियमपूर्वक
आत्मा के साथ रहकर उत्कर्ष ही करता है उसी प्रकार अलंकार भी रस के साथ ही रहें तथा यदि रहें तो उत्कर्ष ही करें यह आवश्यक नहीं।10 अतः गुण और अलंकार में साम्य कहना उचित नहीं।11 ऐसा मम्मट ने उद्भट के विचार का खण्डन किया है।
साथ ही आचार्य उद्भट का ऐसा मानना है कि उपमा, उत्प्रेक्षा आदि सर्वथा अलंकार की कोटि में ही रहते हैं। वे किसी विशेष परिस्थिति में अलंकारों की कोटि में आ सकते हैं या नहीं इस तथ्य को अविचारित ही छोड़ दिया है। अपितु कुछ अन्य आलंकारिकों के समान ‘रस’ को भी अलंकार के ही रूप में मान्यता प्रदान की है। यह वह युग है जब मान्यता थी कि शब्दार्थ ही अलंकार्य है और शेष अलंकार।
प्रतिहारेन्दुराज जी की लघुवृत्ति नामक ‘काव्यालंकारसारसंग्रह’ की टीका में पुनरुक्तवदाभास अलंकार निरूपण के प्रसंग में प्राप्त उल्लेख-
‘अत्रालंकार्य यत्काव्यं तद्धर्मत्वेन पुनरुक्तवदाभासमानयोः
पद्योरलंकारत्वमुक्तं न तु स्वतन्त्रतया।’12

से स्पष्ट है कि यहां अलंकार्य है काव्य और उसका अलंकार है पुनरुक्तवदाभासमानपद। इससे प्रतीत होता है कि उद्भट शब्दार्थात्मक काव्य को अलंकार्य की कोटि में रखते थे। परन्तु इस मान्यता से ‘वाक्यंरसात्मकं काव्यं’ या ‘काव्यस्यात्मा ध्वनिः’ वाली विचारधारा के आचार्य तो निश्चितरूप से असहमत ही रहेंगे। यहां तक कि इनके समकालीन वामन ने अलंकार की दो व्युत्पत्तियों-
1. भावव्युत्पत्ति
2. करण  व्युत्पत्ति
के आधार पर उसे सौन्दर्य का पर्याय भी माना और सौंदर्य का साधन भी माना है। साधन को भी व्यापक और संकुचित दो रूपों में विभक्त किया है। परन्तु उद्भट ने ‘चेतोहारि साधम्र्यम्’ कहकर साधम्र्य रूप उपमा जैसे अलंकार ही काव्य में चित्त को आकर्षित करने वाले सौंदर्य के स्रोत तत्व हैं, ऐसा सिद्ध किया है।
2.अर्थभेदेन तावच्छब्दा भिद्यन्ते इति भट्टोद्भटस्य सिद्धान्त:13
अलंकार सामान्य से सम्बन्धित उपरोक्त धारणाओं के अतिरिक्त आचार्य उद्भट की ऐसी भी मान्यता है कि अर्थभेद से शब्द का भेद भी होता है अर्थात् श्लेष अलंकार में जहां अनेक अर्थों की प्रतीति होती है वहां एक ही नहीं अपितु अनेक शब्दों की स्थिति मानना चाहिए। इन एकाधिक शब्दों की स्थिति जो एक ही शब्द में प्रतीत होती है उसका कारण है उन भिन्न-भिन्न प्रतीत होने वाले अर्थों के बोधक शब्द कभी तो आकारतः एक ही होते हैं और कभी-कभी आकारतः भिन्न। जब आकारतः एक होते हैं तब उद्भटाचार्य वहां एक ही शब्द की तरह मानते हैं और स्पष्ट करते हैं कि उस शब्द से प्रतीत होने वाले भिन्न -भिन्न अर्थों की वही स्थिति होती है जो एक ही वृत्त में लटकते हुए विभिन्न फलों की होती है। इसे अर्थश्लेष मानते हैं जैसे- ‘शिलीमुख’ शब्द के दो अर्थ हैं- 1.  बाण 2.  भ्रमर
आचार्य उद्भट का मानना है कि यहां दोनों अर्थों का बोध दो भिन्न ‘शिलीमुख’ शब्द से होगा, पर उन दोनों की आकृति या वर्णविन्यास क्रम और उच्चारणार्थ चालित ध्वनि यन्त्र के अवयवों का समान प्रयास, एक सा ही होता है, अतः दोनों एक ही प्रतीत होते हैं। आचार्य उद्भट श्लेष की वहां दूसरी स्थिति मानते हैं जहां पर भिन्नाकारिक अनेक शब्द मिलकर अभिन्न प्रतीत होते हैं। यथा- ‘अपारिजात’ शब्द। यहां पर दो भिन्न अर्थ वाले भिन्न-भिन्न शब्द मिल गये हैं जो इस प्रकार हैं।
1. अ$पारिजात = पारिजातहीन स्थान।
2. अपआरिजात = शत्रुओं से रहित।
इसे आचार्य उद्भट शब्दश्लेष की संज्ञा देते हैं। इस प्रकार वे श्लेष दो प्रकार का मानते हैं-
1. शब्द श्लेष। 2.  अर्थश्लेष।
तथा इनकी अर्थालंकार की कोटि में ही रखते हैं। आचार्य मम्मट ने इस मत का खण्डन करते हुये कहा है कि-
‘शब्दश्लेष इति चाोच्यते, अर्थालंकारमध्ये च लक्ष्यते इति कोऽयं नयः।’14
अर्थात् शब्दश्लेष कहते हैं और अर्थालंकारों में गणना करते हैं यह कौन सा न्याय है? अर्थात् जब स्पष्टतः आचार्य उद्भट आदि श्लेष के एक भेद को शब्दश्लेष नाम से कहते हैं तब तो उसकी गणना शब्दालंकारों में करनी चाहिए। इसे फिर अर्थालंकारों में सम्मिलित करना उचित नहीं।
आचार्य उद्भट की श्लेष के सन्दर्भ में एक और मान्यता है कि श्लेष अन्य अलंकारों से प्रबल होता है जहां श्लेष के साथ अन्य अलंकार भी हो वहां श्लेष ही प्रधान माना जाता है और अन्य अलंकार गौण माने जाते हैं जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है-
‘‘अलंकारान्तरगतां प्रतिभां जनयत्पदैः’’15
अर्थात् जहां-जहां श्लेष अलंकार होगा वहां कोई न कोई भिन्न अलंकार अवश्य होगा अर्थात् श्लेष और अलंकारान्तर दोनों की एकत्र स्थिति में किसकी प्रधानता मानी जाय और किसकी न मानी जाय ? इस प्रश्न पर आचार्य उद्भट का कहना है कि जब अलंकारान्तर की श्लेष भिन्न स्ािलों में स्वतन्त्र स्थिति है और श्लेष की कहीं स्वतन्त्र स्थिति है ही नहीं इस स्थिति में यही मानना संगत है कि श्लेष निरवकाश होने से अलंकारान्तर का बाधक होगा और ऐसी स्थितियों में अलंकारान्तर को अप्रमुख करके स्वयं की ही प्रधानता रखेगा।
आचार्य मम्मट ने उद्भट की इस मान्यता का खण्डन प्रस्तुत करते हुए कहा है-
‘न चायमुपमाप्रतिभोत्पत्तिहेतुः श्लेष अपि तु श्लेषप्रतिभोत्पत्तिहेतुरूपमा।’16
अर्थात् ‘पल्लवाताम्रभास्वत्करविराजिता’ आदि उदाहरण में जो पूर्व आलंकारिक मानते हैं कि श्लेष प्रधान अलंकार है और वह उपमारूप् गौण अलंकार के प्रतिभास मात्र का हेतु है। यह बात उचित नहीं अपितु वस्तुतः उपमा ही प्रधान अलंकार है और वह श्लेष रूप गौण अलंकार के प्रतिभास मात्र का हेतु होता है। इसी प्रकार राजानक रुय्यक, विश्वनाथ और पंडितराज जगन्नाथ ने भी अपना मत प्रस्तुत किया है।
राजानक रुय्यक ने अलंकारसर्वस्व में बताया है कि उद्भट आदि आलंकारिक समस्त व्यंग्य अर्थ को भी वाच्य अर्थ का उपस्कारक मानते हैं। उपस्कार्य या अलंकार्य तो शब्द और वाच्य अर्थ ही है। अतः इनके यहां समस्त ध्वन्यमान अर्थ का अन्तर्भाव अप्रस्तुतप्रशंसा या पर्यायोक्ति में ही कर लेना चाहिए। ध्वन्यालोककार ने ध्वन्याभाववाद के सन्दर्भ में इस मत का उल्लेख पूर्वक खण्डन किया है।17 उद्भट के टीकाकार प्रतिहारेन्दुराज ने भी ऐसा ही आशय प्रकट किया है इससे ज्ञात होता है कि ध्वनि के सद्भाव को तो मानते है परन्तु अलंकारों से पृथक नहीं।
3.गुणों का आश्रय संघटना-
ध्वन्यालोक लोचनकार ने स्पष्टतः कहा है कि- ‘संघटनायाधर्मो गुणा इति भट्टोद्भटादयः।।’18 अर्थात् उद्भट के अनुसार गुणों का आश्रय संघटना है। उसका कारण यह है कि गुण के स्वरूप की धारणा ही इन लोगों की भिन्न है तथा ध्वनिवादियों की गुण सम्बन्धी धारणा भिन्न है। ध्वनिवादी आचार्य आनन्दवर्धन आचार्य उद्भट की गुण सम्बन्धी धारणा का खण्डन करते हुए मानते हैं कि संघटना का आश्रय गुण है। आश्रय इस अर्थ में कि गुण के आधार पर संघटना का निर्माण होता है।
आचार्य उद्भट के उपरोक्त मत के खण्डन में ध्वन्यालोककार का कथन है कि- ‘यदि  गुणाः संघटना चेत्येकं तत्वं संघटनाश्रया या गुणाः
तदाः संघटनाया इव गुणानामनियतविषयत्वप्रतंगः।’19

अर्थात् यदि गुण और संघटना एक तत्व हैं अथवा संघटना के आश्रित गुण रहते हैं यह )मानें तो संघटना के समान गुणों में ाी अनियत विषयत्व हो जायेगा और आगे कहते हैं-
तस्मान्न संघटनास्वरूपाः न च संघटनाश्रया गुणाः।20
अर्थात् गुण न तो संघटना स्वरूप है और न संघटनाश्रित। अपितु आचार्य आनन्दवर्धन ने ‘मर्थमवलम्बन्ते येऽङ्गिनं ते गुणाः स्मृताः।’21 कहकर गुणों को रसाश्रित सिद्ध किया है।
4. शब्द शक्ति विवेचन:
काव्यमीमांसाकार आचार्य राजशेखर ने कहा है कि -
तस्य (वाक्यस्य) च त्रिधाभिधाव्यापाराः- वैभक्त, शावतः शक्तिविभक्तिमयः इति औद्भटाः।22
अर्थात् उद्भट ने वाक्य के तीन प्रकार के व्यापार माने हैं।
1. वैभक्त
2. शाक्त
3. शक्तिविभक्तिमय।
परन्तु इनका प्रचुर स्पष्टीकरण नहीं दिया है।आचार्य अभिनव गुप्त इस प्रकरण को लोचन में भामह के ‘शब्दाश्छंदोभिधानार्थाः’ इस अंश की टीका के रूप में उद्भट का वाक्य उद्धृत करते हुए कहते हैं कि- ‘शब्दानामभिधानं अभिधाव्यापारों मुख्यो गुणवृत्तिश्च।’अर्थात् शब्द की दो शक्तियाँ
होती हैं अभिधा और गुणवृत्ति। इससे स्पष्ट है कि शब्द की दो शक्तियों को तो उल्लेख किया ही है साथ ही पर्याशोक्त अलंकार के प्रसंग में उद्भट ने यह भी कहा है कि यहां वाच्य-वाचक भाव या अभिधा शक्ति से नहीं अपितु शब्द की अवगमात्मक शक्ति से वक्ता का तात्पर्य स्पष्ट होता है-यथा-
‘पर्यायोक्तं यदन्येन प्रकारेणभिधीयते।
वाच्य वाचक वृत्तिभ्यां शून्येनावगात्मना।।’23

इसी ‘अवगात्मक’ शक्ति को आगे चलकर ध्वनिवादियों द्वारा ‘व्यंजना’ नाम से कहा गया है। इस प्रकार व्यंजना की भी अनजाने ही आवश्यकता स्वीकार कर ली गई है। परन्तु वास्तव में इन्होंने अभिधा और गुणवृत्ति को ही मान्यता दी है। इस प्रकार शक्तियों (शब्द की) के निरूपण के साथ ही साथ राजशेखर ने काव्यमीमांसा में अर्थ निरूपण प्रसंग में भी उद्भट का नाम निर्देश करते हुए कहा है कि-
किन्तुद्विरूप  एवासौ विचारितसुस्थोऽविचारितरमणीयः।
तयोः पूर्वमाश्रितानि शास्त्राणि तदुत्तरं काव्यनीत्योद्भटाः।।’24

अर्थात् आचार्य उद्भट के अनुसार अर्थ दो प्रकार का होता है-
1. विचारित सुस्थ
2. अविचारित रमणीय
इनमें पहले को ‘शास्त्र’ तथा दूसरे को ‘काव्य’ कहा जाता है। व्यक्ति विवके व्याख्यान में भी उल्लिखित है कि-
‘शास्त्रेतिहास वैलक्षण्यं तु काव्यस्य शब्दार्थ वैशिष्ट्यादेव।
नाभिधावैशिष्ट्यादिति भट्टोद्भटादीनां सिद्धान्तः।।’25

अर्थात् उद्भट आदि की वह मान्यता है कि काव्य का शास्त्र एवं इतिहास आदि से जो व्यतिरेक है वह शब्द और अर्थ की विशेषतावश न कि ‘अभिधा’ की विशेषतावश। परन्तु राजशेखर इसके खण्डनस्वरूप कहते हैं कि इस बात को मानने से समस्त काव्यगत अर्थ ही असत्य और अप्रमाणिक प्रतीत होने लगेगा।
5. रस सम्बन्धी विचार:
इस प्रकार प्राप्त उद्धरणों द्वारा आचार्य उद्भट की गुण व अलंकार शब्द शक्ति, अर्थ, आदि काव्यशास्त्रीय तत्वों पर विभिन्न मान्यताओं के पश्चात् अब उनकी रस सम्बन्धी विचारधारा का उल्लेख समीचीन प्रतीत होता है। इस सन्दर्भ हेतु काव्यालंकारसारसंग्रह में ही कई स्थल प्रयुक्त किए गये हैं। आचार्य उद्भट ने पूर्व अलंकारिकों की ही परम्परा के अनुरूप रस एवं भाव आदि को काव्य में अप्रधान स्थान प्रदान किया है। जहां रस की प्रधानता हो वहां ‘रसवाद् अलंकार’26 तथा जहां अप्रधानता हो वहां उदात्त27 अलंकार माना है। भाव और रस को आधार मानकर उन्होंने प्रेयस्वद्, ऊर्जस्वी, और समाहित का भी उल्लेख किया है। प्रेयस्वद् के निरूपण में जहां भामह ने केवल प्रीति या रति को ही प्रेयस्वद्28 का विषय स्वीकार किया है। वहीं उद्भट जहां समस्त भावों की अनुमानादि द्वारा सूचना हो वहां प्रेयस्वद्29 मानते हैं। लघुवृत्तिकार प्रतिहारेन्दुराज भी समस्त भावों हेतु ‘प्रेयस्वद्’ शब्द को लाक्षणिक30 मानते हैं। आचार्य अभिनवगुप्त ने भी ध्वन्यालोकलोचन31 में इस अन्तर को स्वीकारते हुए ‘ऊर्जस्वी’ तथा ‘समाहित’ को और स्पष्ट करते हुए बताया है कि जहां भाव एवं रस की सामग्री में या उन्हीं में अनौचित्य हो वहां ‘ऊर्जस्वी’ मानना चाहिए। आगे इसे ही ‘रसाभास’ या ‘भावाभास’ के रूप में स्वीकृति प्राप्त हुई। आचार्य उद्भट तो ‘समाहित’ का स्वरूप मानकर इन शब्दों की ओर इंगित भी करते हैं यथा-
‘‘रसाभावतदाभास वृत्तेः प्रशमबन्धनम्’32
यहां स्पष्टतः रसाभाव और भावाभास संज्ञा की ओर भी इंगित किया है। रसाभास और भावाभास, रस और भाव का जहां प्रशम बताया जा रहा हो और अन्य रस के अनुभाव आदि का वर्णन न किया जा रहा हो तो वहां भाव प्रशम होने से ‘समाहित’ कहा जाता है। आगे चलकर यही ‘भावशान्ति हो गया। आचार्य भामह ने ‘समाहित’ अलंकार का लक्षण ही नहीं दिया है तथा दण्डी ने परकालीन आचार्यों में ‘समाधि अलंकार के अनुरूप ही समाहित की परिभाषा दी।
प्रेयस्वद् एवं रसवद् अलंकार में जहां भाव और रस का स्वरूप बताया है वहां यह स्पष्ट किया है कि भाव के लिए यदि अनुभाव आदि से सूचना भर हो गई हो तो वही पर्याप्त है, पर ‘रस’ के लिए स्पष्टतः शृंगार आदि की स्थिति होनी चाहिए। दण्डी और भामह की अपेक्षा विभाव अनुभाव एवं संचारी शब्दों का प्रयोग उद्भट को रस प्रक्रिया के अधिक समीप बताता है। आचार्य उद्भट भाव तथा रस के द्योतक उपकरणों को क्रमशः चार33 और पांच34 प्रकार का मानते हैं। इसी क्रम में उद्भट का मत है कि शृगारादि रसों की अभिव्यक्ति तत्-तत् शब्दों द्वारा तथा चार अन्य प्रकारों से होती है।35 जो क्रमशः निम्नवत् हैं।
1. स्ववाचक शब्द
2. विभाव
3. संचारी
4. अनुभाव
5. स्थायी
डाॅ0 देशपाण्डे महोदय का मानना है कि आचार्य उद्भट समादृत ‘चतूरूपा भावाः’ और ‘पंचरूपारसाः’ का ध्वन्यालोक लोचन में उल्लिखित ‘अन्येशुद्ध विभावम्’ ‘अपरे शुद्धमनुभावम्’, केचित्तु स्थायीमात्रम्, इतरे व्यभिचारिणम् ........ रसामाहुः’’ आदि मतों में कुछ न कुछ सम्बन्ध अवश्यमेव होगा।36 इनमें से स्वशब्द वाच्यत्व का आनन्दवर्धन ने ‘तथा हि वाच्यत्वंत स्य स्वशब्द निवेदितत्वेन वास्यात् विभावादि प्रतिपादन मुखेन वा’37 आदि कहते हुए खण्डन किया है। आचार्य शंकुक भी स्वशब्दवाच्यत्व का खण्डन करते हैं।
आचार्य मम्मट के अनुसार विभिन्न रसों की अभिव्यक्ति के लिए शृंगार आदि शब्दों का प्रयोग दोषों में गिना जाता है।38 आचार्य अभिनवगुप्त39 ने उद्भट क ेमत को बड़े विस्तृत रूप से नाट्यशास्त्र की टीका के दशरूपाध्याय में प्रस्तुत किया है और वहीं पर ‘वृत्तिा’ तथा ‘रसविभाव’ के सम्बन्ध में आचार्य उद्भट के मत को स्पष्ट किया है। आचार्य उद्भट ने रसस्वरूप के निर्धारण में उन दशरूपकों के वर्गीकरण में पुरुषार्थों अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को भी रसास्वादन के साथ उल्लेख किया है।
उद्भट का मानना है कि नाट्य में, धर्म के लिए वीर अर्थ के लिए रौद्र काम के लिए शृंगार मोक्ष के लिए शान्त और वीभत्स का प्रयोग किया जाता है। तथा दशरूपकों का वर्गीकरण भी इसी प्रकार उन्होंने माना है अर्थात् ‘भाण’ और ‘प्रहसन’ को तो मात्र मनोरंजन की दृष्टि से निर्मित मानते हैं। ‘नाटक’ तथा ‘प्रकरण’ पुरुषार्थ प्रधान होते हैं इसीलिए उनमें शृंगार या वीर रस का विधान होता है। समवकार, डिम तथा ‘व्यायोग’ में रौद्र रस की प्रधानता होती है। इसी प्रकार पुरुषार्थ की दृष्टि से काव्य का विचार आचार्य आनन्दवर्धन तथा अभिनवगुप्त का भी था। आचार्य अभिनवगुप्त आदि जब ‘प्रीति’ और ‘व्युत्पत्ति’ का विचार करते हैं तो रस की उपयोगिता पुरुषार्थ उन्मुख प्रतीत होती है।
इसके अतिरिक्त आचार्य उद्भट जब काव्य में कभी विभाव अनुभाव, संचारी स्थायी तथा स्वशब्द वाच्यता का उल्लेख करते हैं तब निश्चित रूप से श्रव्य काव्य का अस्तित्व सम्मुख होता है। अर्थात् आचार्य आनन्दवर्धन से पहले आचार्य उद्भट ने ही श्रव्यकाव्य से रस का सम्बन्ध स्थापित किया है। यह उद्भट की ही देन है।
‘काव्यालंकारसारसंग्रह’ में आचार्य उद्भट जहां ‘रस’ को ‘रसवद्’ अलंकार के रूप में मान्यता देते हैं वहीं कर्नल हरमन जैकोबी का मानना है कि निम्नोक्त कारिका उद्भट की है अतः उद्भट अवश्य रस को काव्य का जीवदूप (आत्मा) स्वीकारते हैं-
‘रसाद्यधिष्ठितं काव्यं जीवदूपतया यतः। कथ्यते तद्रसादीनां काव्यात्मत्वं व्यवस्थितम्।।40
उपरोक्त श्लोक काव्यालंकारसारसंग्रह की किसी-किसी प्रति में प्राप्त होता है न कि सभी प्रतियों में। तथा इसका उल्लेख भी अनवसर पर है। क्योंकि यदि आचार्य उद्भट का कोई इस प्रकार का सिद्धान्त होता तो उसे ‘रसवद् अलंकार’ के निरूपण के प्रसंग में ही प्रयुक्त करते। जबकि उपरोक्त श्लोक को लघुवृत्तिकार ने तदाहुः शब्दों के साथ प्रस्तुत किया है41 और यह रसवद् अलंकार की वृत्ति में न आकर काव्यलिंग अलंकार की व्याख्या में प्रयुक्त हुआ है। साथ ही काव्यलिंग का लक्षण देने के उपरान्त उदाहरण स्वरूप-
छायेयंतव शेषांगकान्तेः किंचिदनुज्जवला।
विभूषाघटनादेशान्दर्शयन्तीदुनोतिमाम्।

श्लोक प्रयुक्त है।
अतः यदि जैकोबी का मत माना जाय तो ‘रसाद्याधिष्ठितिं काव्यं .....व्यवस्थितं’ श्लोक को काव्यलिंग अलंकार के लक्षण और उदाहरण के मध्य ही स्थापित करना होगा। जो अनौचित्यपूर्ण होगा तथा उद्भट सम्मत रसवद् अलंकार वाला पक्ष चतुर्थ वर्ग में इस श्लोक से पहले प्रयुक्त हो चुका है तत्पश्चात् इस श्लोक को स्थापित करना ‘वदतोव्याघात्’ मात्र सिद्ध होगा। यदि उद्भट का रस विषयक ऐसा विचार होता तो लघुवृत्तिकार वृत्ति करते समय रस को काव्य का उपस्कारक अथवा उपस्कार्य मानने का विकल्प प्रस्तुत न करते और उपस्कारक वाले पक्ष का समर्थन ही करते।
इसी प्रकार अलंकारसर्वस्वकार ने भी जो मत प्रकट किया है उसमें भी उद्भट को रस का उपस्कारक रूप मानने वाला बताया गया है।42 न कि उपस्कार्य रूप ।
अतः इस आधार पर जैकोबी महोदय का अनुमान कि ‘उद्भट ही वह प्रथम आलंकारिक हैं जिन्होंने रस को श्रव्य काव्य की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित किया’ भ्रमपूर्ण है।
सन्दर्भ:
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3. काव्यालंकारसारसंग्रह-बनहट्टी, सम्पादित-भूमिका, पूनासंस्करण-1925
4. काव्यालंकारसूत्र-3/1/1- वामन
5. वही- वामन- 3/1/2, 3/1/3
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7. काव्यप्रकाश-मम्मट, पृ0-384, विश्वेश्वर कृत हिन्दी टीका-ज्ञानमण्डललि. 1960
8. काव्यप्रकाश- 8/66
9. वही- 8/67
10. काव्यप्रकाश-मम्मट, पृ0-384, विश्वेश्वर कृत हिन्दी टीका-ज्ञानमण्डललि. 1960
11. वही - पृ0-384
12. काव्यालंकारसारसंग्रह लघुवृत्ति समेतः - बनहट्टी सम्पादित-पृ0 2, पूना संस्करण, 1925
13. काव्यालंकारसारसंग्रह, बनहट्टी सम्पादित-पृ0 58, 63 पूना संस्करण, 1925 (लघुवृत्ति समेतः)
14. काव्यप्रकाश-मम्मट-विश्वेश्वर कृत हिन्दी टीका, पृ0-432, ज्ञानमण्डल-1960
15. काव्यालंकारसारसंग्रह, बनहट्टी सम्पादित-पृ0 59,प्ट -8-9 पूना संस्करण, 1925
16. काव्यप्रकाश-मम्मट-विश्वेश्वर कृत टीका, पृ0 426, ज्ञानमण्डल-1960
17. ध्वन्यालोक-नगेन्द्र संपादित-पृ0-5, ज्ञानमण्डल लि0 संवत् 2042
18. ध्वन्यालोक लोचन-अभिनव गुप्त, पृ0 165
19. ध्वन्यालोक-आनन्दवर्धन-नागेन्द्र संपादित, पृ0 170, ज्ञान मण्डल लि0 सं0 2042
20. ध्वन्यालोक तृतीय उद्योत-आनन्दवर्धन-नागेन्द्र संपादित, पृ0 171, ज्ञानमण्डल लि0 संवत् 2042
21. वही- द्वितीय उद्योत- पृ0 94
22. काव्यमीमांसा-राजशेखर, पृ0 22
23. काव्यालंकारसारसंग्रह - बनहट्टी सम्पादित-पृ0 55 प्ट/11-12, पूना संस्करण, 1925
24. काव्यमीमांसा- राजशेखर, पृ0 44
25. व्यक्तिविवेक टीका- रुय्यक पृ0 4
26. रसवद्दर्शित स्पष्ट .......अभिनयास्पदम्। ‘काव्यालंकारसारसंग्रह, पूना संस्करण पृ0 52प्ट 15-16
27. उदात्तमृद्धिमद्वस्तु चरितं च महात्मनाम्। उपलक्षणतां प्राप्तं नेति वृत्तत्वमागतम्।। काव्यालंकारसारसंग्रह-पृ0 57 प्ट 2-3 पूना संस्करण 1925
28. काव्यालंकार-भामह 3/5
29. रत्यादिकानां भावानामनुभावादि सूचनैः। यत्काव्यं बध्यते सद्भिः तत्प्रेयस्वदुदाहृतम।। ‘काव्यालंकारसारसंग्रह-पृ0 50  11-12 पूना संस्करण 1925
30. एवं च भाव काव्यस्य प्रेयस्वदिति लक्षणया व्यापदेशः।  वही-पृ0 52 प्ट-2
31. ध्वन्यालोकलोचन-अभिनवगुप्त, प्रथम उद्योत
32. काव्यालंकारसारसंग्रह- पृ0 56 प्ट 4 पूना संस्करण 1925
33. यदुक्तं भट्टोद्भटेन- चतूरूपाभावाः।
काव्यालंकारसारसंग्रह लघुवृत्ति टीका-पृ0 51-4-(22-23) पूना संस्करण-1925
34. यदुक्तं भट्टोद्भटेन- पंचरूपा रसाः।
काव्यालंकारसारसंग्रह लघुवृत्ति टीका-पृ0 53-4-(8-9) पूना संस्करण-1925
35. रसवद्दर्शित स्पष्ट श्रंगारादि रसादयम्।
स्वशब्द स्थायि संचारि विभावाभिनयास्पदम्।।
काव्यालंकारसारसंग्रह- बनहट्टी संपादित, पृ0 52-4- (15-16) पूना संस्करण 1925
36. भारतीय साहित्य शास्त्र-गणेश त्रयम्बक देशपाण्डे-पृ0 266, राजपाल एण्ड सन्स 1958
37. ध्वन्यालोक-आनन्दवर्धन-तृतीय उद्योत
38. व्यभिचारि रस स्थायिभावानां शब्दवाच्यता।.... दोषाः स्युरीदृशाः।।
काव्यप्रकाश- 7/62-62
39. अभिनवभारती-अभिनवगुप्त-दशरूपाध्याय।
40. (क) जर्नल आफ द रायल एशियाटिक सोसायटी बाॅम्बे ब्रा0, पृ0 847
(ख) काव्यालंकारसारसंग्रह-83- 6- 21-22, पूना संस्करण-1925
41. वही - 83-6- 20-22
42. ‘‘उद्भट प्रभृतयाश्चिरन्तनालंकारकाराः प्रतीयमानमर्थं वाच्योपस्कारकतयालंकारपक्षनिक्षिप्तं मन्यन्ते।’’
अलंकार सर्वस्व- रुय्यक- रेवाप्रसाद द्विवेदी संपादित पृ0 6, चैखम्बा संस्करण-1971