महर्षि व्यास रचित पुराणों से अनुप्रणित 20 वीं शताब्दी के संस्कृत महाकाव्य

शैला भारती

सीनियर रिसर्च फेलो,संस्कृत विभाग,

 महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी 

सारांश

           प्रत्येक देश एवं काल में कतिपय ऐसी महान विभूतियों का आविर्भाव होता है कि प्रखर प्रतिभा समस्त भूमण्डल को आलोकमय बना देती है। उनकी विश्वविश्रुत भारती निखिल जगत की संस्कृति को युग-युगान्तरों तक प्रभावित करती रहती है। उनकी दिव्य लेखनी से जिससाहित्य का प्राकट्य होता है उससे अभिभूत शक्ति मानवीय जीवन की प्रेरणादायी शक्ति बन जाती है। महर्षि वेदव्यास भारत की उन अनुपम निधियों में से है जिन्होंने धार्मिक एवं सांस्कृतिक जागरण द्वारा निखिल विश्व को अनुप्राणित किया है। यथा-पराशर्यं परमपुरुषं विम्वेदैकयोनिं,विद्याधरं विमलमनसं वेदवेदान्तवेद्यम।शम्च्छान्तं शमितविषयं शुद्धबुद्धिं विशालं वेदव्यासं विमलयशसं सर्वदाहं नमामि।।1

 की.वर्डः महर्षि व्यास, संस्कृत महाकाव्य,

           पुराण महर्षि पराशर एवं कैवर्तराज की पोष्यपुत्री महाभागा सत्यवती के गर्भ से यमुना जी के द्वीप में उत्पन्न लोकोत्तर शक्ति सम्पन्न महर्षि व्यास भगवान् नारायण के कलावतार थे। धनशील वर्ण एवं द्वीप में उत्पन्न होने के कारण उन्हें कृष्ण द्वैपायन भी कहा जाता है। आपकों अगे और इतिहासों सहित सम्पूर्ण वेद और परमतत्व का ज्ञान स्वतः प्राप्त हो गया, जिसे दूसरे व्रतोपवासनिरत यज्ञ, तप और वेदाध्ययन से भी नहीं प्राप्त कर पाते। प्रारम्भ में वेद एक ही था। परम पुण्यमय सत्यवतीनन्दन ने मनुष्यों की आयुं और शक्ति को क्षीण होता देखकर वेद का व्यास (विस्तार विभाग) किया, इसलिए वेदव्यास नाम से प्रसिद्ध हुए। वेदार्थ दर्शन की शक्ति के साथ अनादि पुराण को लुप्त होते देखकर कृष्णद्वैपायन ने पुराणों का प्रणयन किया, उन पुराणों में निष्ठा के अनुरुप आराध्य की प्रतिष्ठा कर उन्होंने वेदार्थ को चारों वर्णों के लिए सहज तथा सुलभ बना दिया। अष्टादश पुराणों के अतिरिक्त बहुत से उपपुराण तथा अन्य ग्रन्थ भी व्यास द्वारा प्रणीत है।

           ईसा पूर्व शताब्दियों से आज तक के अधिकांश भारतीय साहित्य का बहिरग् और अन्तरग् व्यास प्रणीत साहित्य से अनुप्रणित है। भारतवर्ष का समस्त वा=्मय अपने शरीर सर्जन और आत्मा के अभिज्ञान के लिए महर्षि व्यास साहित्य का मुखापेक्षी है। उनका विशाल सािहत्य समस्त परवर्ती साहितय का एकमात्र उपजीव्य है। एकमात्र महाभारत ने अद्र्धाधिक भारतीय साहित्य को व्याप्त कर रखा है। महाभारत समस्त विश्व में सबसे बृहद् ग्रन्थ तथा विम्कोष होने की महिमा से मण्डित है।2 अत्यन्त विस्तृत पुराणों में कल्पभेद से चरित्र भेद पाये जाते है। समस्त चरित्र इस कल्प के अनुरुप हो तथा समस्त धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष सम्बन्धी सिद्धान्त भी उसमे एकत्र हो जाय। इस निचय से वेदव्यास जी ने प/म वेद ‘महाभारत‘ का उपबृंहण किया। कृष्णद्वैपायन व्यास द्वारा प्रकट होने के कारण इसे काष्र्णवेद भी कहा जाता है।3

               वैदिकोत्तर व्यास के वा=्मय ने मध्यकालीन भारतीय समाज की चिन्तनधारा को जितना प्रभावित किया है, उतना किसी अन्य साहित्य ने नहीं। महर्षि व्यास द्वारा प्रणीत ग्रन्थ परवर्ती रचनाकारों के लिए उपजीव्य है। जिसका आश्रय लेकर अनेक रचनाकारों ने अपनी रचनाओं को अल=कृत किया है। व्यास द्वारा विरचित कथाओं एवं कथांशों के आधार पर अनेक महाकाव्य गीतिकाव्य, नाटक एवं चम्पू आदि लिखे गये है, परन्तु यहाँ पर बीसवीं शताब्दी ई॰ के संस्कृत महाकाव्यों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत हैः-

  1. शिवकथामृतम्-

शिवपुराण से प्रभावित इस महाकाव्य के रचनाकार ‘पं॰ छज्जुराम शास्त्री‘ है। प्रस्तुत महाकाव्य की कथावस्तु शिवपुराण से ली गई है। यह 18 सर्गों से निबद्ध है।4 इस महाकाव्य के सर्गानुसार कथावस्तु इस प्रकार है-

1 शिवपुरी काशी दर्शन

2. शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों का वर्णन

3. शिवपत्नी सती की कथा

4. शिवपत्नी पार्वती की कथा

 5. शिवपुत्र स्कूंद की कथा

6. शिवपुत्र गणेश की कथा

7. शिवपुत्र त्रिपुरदाह

8. शिव द्वारा अन्धकासुर वध

9. शिवभक्त बाणासुर की कथा

10. बाण द्वारा गाणपत्य लाभ

11. शिव द्वारा जालंधर वध

12. शिव द्वारा दंुदभि वध

13. शिवावतार वर्णन

14. शिवसूर्यशतनाम वर्णन

15. शिव साहित्य वर्णन इत्यादि

 2. भीष्मचरित महाकाव्य-

               प्रस्तुत महाकाव्य के प्रणेता डा॰ हरिनारायण दीक्षित है। भीष्मचरित महाभारत के एक महनीय पात्र गंगापुत्र देवव्रत भीष्म के जीवन तथा व्यक्तित्व पर आधारित है। इसकी कथावस्तु का मूल आधार प/म वेद महाभारत है। प्रस्तुत महाकाव्य में 20 सर्ग है। इसमें विधुर शान्तनु का दाशकन्या सत्यवती को देखकर मोहित होना उसके द्वारा शादी के लिए यह शर्त रखना कि उससे उत्पन्न पुत्र ही युवराज बनेगा, इससे शान्तनु की व्याकुलता देवव्रत भीष्म द्वारा वस्तुस्थिति का ज्ञान, भीष्म द्वारा आजीवन ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा अन्त में आहत हो कर शरशैघया पर लेटना तथा सूर्य के उत्तरायण होने पर अपनी इच्छा से भगवान कृष्ण के समक्ष महाप्रराण का वर्णन है। भीष्म द्वारा आजीवन ब्रह्मचर्य धारण करने की प्रतिज्ञा के समय प्रकृति पर होने वाला प्रभाव अत्यन्त ही रोमांचक है-

धरा चकम्पे गगनं च विद्युते दिशांे बभुवुः सकलाश्च नीवाः5 8/66

3.चीरहरण महाकाव्य-

           बारह सर्गों में निबद्ध चीरहरण महाकाव्य की रचना 1983 में हुई। इस महाकाव्य के प्रणेता ‘परमानन्द शास्त्री‘ ने इसमें महाभारत की प्रसिद्ध कथा द्रौपदी चीरहरण को एक नये ढंग से प्रस्तुत किया है। इसमें युधिष्ठर को धूतक्रीड़ा का निमन्त्रण युधिष्ठिर का प्रस्थान नगरवासियों का प्रस्थान नगरवासियों द्वारा द्रौपदी को हार जाना दुःशासन का बलपूर्वक सभा में लाकर उसका चीरहरण द्रौपदी का मूच्र्छित होना, कृष्ण का सभा के प्रवेश दुर्योधन के साथ संवाद और समस्या का समाधान वर्णित है। दुःशासन द्वारा बलपूर्वक सभा में लायी गयी द्रौपदी ने गुरुजनों तथा धृतराष्ट्र के सभासदों से जो अपनी आर्तवेदना कही है, वह पूरी मानवता का प्रतिनिधित्व करने वाली बन गयी है। तृणितमानवताùत्र विषीदति ध्रुवमशोणि दयामृतमानसनम्।

न लभते हि नयः शरणं क्वचित् तुदति राजनयस्तमनागसम6।।

4. वामनावतरण महाकाव्य-

               इस महाकाव्य का निर्माण ‘‘अभिराज राजेन्द्र मिश्र‘‘ ने किया है। 7 सर्गों के 875 श्लोकों वाले इस महाकाव्य की कथा मूलतः श्रीमद्भागवत पर आधारित है। इसमें बलि प्रताप अमरावती विजय, अदितिपयोव्रत, वामन अवतार, बलिनिग्रहाभिधान, वामन का विराट रुप दर्शन, बलिबन्धन, ज्ञानोपदेश और अन्त में देवसाम्राज्य की पुनः प्रतिष्ठा आदि घटनायें भागवत के अष्टम स्कन्ध (15 वें अध्याय से 23 वे अध्याय तक) के आधार पर वर्णित है।7

5. रुक्मिणीहरण महाकाव्य-

                श्रीमरगवतमहापुराण के आधार पर 1966 ई॰ में काशी नाथ शर्मा द्विवेदी ‘‘सुधीसुधानिधि‘‘ ने इस महाकाव्य की रचना की है। प्रस्तुत महाकाव्य में कुण्डिनपुर नरेश भीष्मक का वर्णन रुक्मिणी जन्म, नारद जी का कुण्डिनपुर में आगमन शिशुपाल का आगमन श्रीकृष्ण की कुण्डिनपुर यात्रा एवं रुक्मिणीहरण आदि घटनाओं का प्राचीन शास्त्रीय परिपाटी के अनुसार विविध छन्दों में सरस वर्णन किया गया है। काव्य में प्रभात वर्णन का एक चित्र स्पृहणीय है-

यामेष्वथ त्रिषु गतेषु निशीयिनी सा निष्पन्दनीखत राध्वनिता क्रमणे।

निद्राùलसेव रमणी रमणीयवाचा वाचां भरेण रणिताùभरणा बभूव।।8

 6. श्रीराधाचरित महाकाव्य-

           श्रीराधाचरित महाकाव्य का प्रणयन 1984 में आचार्य कालिकाप्रसाद शुक्ल ने किया है। त्रयोदश सर्गात्मक महाकाव्य का प्रणयन सकल ब्रह्माण्ड की कारणभूत करुणामयी श्रीराधा के चरणों की अर्चना के निमित्त किया है। कवि ने ब्रह्माण्डपुराण, स्कन्दपुराण, देवीभागवत तथा राधातापनी उपनिषद आदि में चित्रित अद्भूत रसमयी घटनाओं का आश्रय लेकर उच्चारण करना पाठकों के हृदय को आनन्दित कर देता है-

 

मल्लाः कपोताः कमनीयकायाः कुलायवासा अनुरासगीतम्।

ओंकारहुंकारगिरो गृणानाः स्वचेतसा गीतगवीमुपेताः।।9

7. श्रीराधापरिणयमहाकाव्य-

               कविशेखर की उपाधि से विभूषित ‘बदरीनाथ झा‘ (1893-1974) ने श्रीमद्भागवतमहापुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण एवं राधातापनीयोपनिषद पर आधारित श्रीराधापरिणय महाकाव्य की रचना की। कवि ने श्री कृष्ण की बाललीलाओं का वर्णन बारह सर्गों तक किया है। तेरहवें सर्ग से लेकर बीसवें सर्ग तक सुरभिशुक्रस्तुति के बाद राधाकृष्ण के प्रणय की मूल कथा वर्णित हैा। रासलीला का सरस वर्णन करते हुए कवि लिखता है-

उल्लासः कुतुकस्य विश्वविजयन्यासः सुमेषोर्भृशं ह्यसः कृष्णवियोगादुः सहरुजो व्यासः कलानां परः।

उच्छावासः शिशिरों रतेरनुपमों वासश्चिरत्नः श्रिया माश्वासः पशुपालप=जादृशां रासश्चिरायाभवत्।।10

               प्रस्तुत उद्धरण में कवि ने श्रीकृष्ण द्वारा गोपियों को परिपूर्ण काम किये जाने का उल्लेख करके श्रीकृष्ण और राधा के मधुर प्रणय प्रसंग को एक बहुत ही उदात्त मानवीय भावना की ओर संकेत करते हुए अपनी वाणी को विराम दिया है।

8. पारिजातहरण महाकाव्य-

               श्रीमरगवतमहापुराण के दशम स्कन्ध के 59 वे अध्याय की संक्षिप्त कथा पर आधारित इस महाकाव्य का प्रणयन उमापतिशर्मा द्विवेदी ‘कविपति‘ ने की है। प्रस्तुत महाकाव्य मंे 21 सर्ग हैं। इसमें द्वारका में रैवतक पर्वत पर रुक्मिणी द्वारा किये गये याग के प्रसंग में नारद द्वारा रुक्मिणी को परिजात पुष्प अर्पण करना, सत्यभामा का रुष्ट होना, श्रीकृष्ण द्वारा पारिजात वृक्ष लाकर देने की प्रतिज्ञा करना, श्री कृष्णसत्यभामा का स्वर्गलोक गमन, इन्द्रप्रासाद वर्णन इन्द्रनारायण का युद्ध मातृमहिमा का वर्णन, भीमासुर वध, उपहार स्वरुप पारिजात की प्राप्ति आदि का वर्णन है। महाकाव्य के तृतीय सर्ग के द्रुतविलम्बित छनद में लिखे पद्यों में यमक का सुनियोजन चिन्ताकर्षक है-

अपि करेणुकरेणुविशिघृणं विदधतों दधतों मदविभ्रमम्।

समुपबृहितका ययुः शमदरम्मदरंजिकटा घटाः।।11

9. देवीचरित महाकाव्य-

               पं॰ रामावतार मिश्र द्वारा प्रणीत 19 सर्गात्मक प्रस्तुत महाकाव्य एक विदग्धकोटि का पौराणिक शैलीयुक्त कलापूर्ण काव्य है। इस महाकाव्य की कथा दुर्गासप्तशती के अध्यायों के अनुसार ही वर्णित है। इसमंे आदिशक्ति जगज्ज्ननी द्वारा महिषासुर आदि अनेको आसुरों के संहार की कथा है। अन्त में देवी वरदान देकर अन्तर्हित हो जाती है। इस प्रसंग में कवि का उद्गार हृदयावर्जक है-

इत्थं दयालमपहाय जगन्नियन्त्री कोùन्यां श्रयेत कुमतिर्जननीं विमूठः।

दत्ते पिता सुतजनाय विविच्य, किंचिन्माता न चिन्तयति पात्रमपात्रकं वा।।12

10. सुरथचरित महाकाव्य-

                मार्कण्डेयपुराण के 81वें अध्याय से लेकर 93 वे अध्याय में उपनिबद्ध देवीमाहात्म्य की कथा को उपजीव्य बनाकर क्षेमधारिसिंह शर्मा ने 18 सर्गों में सुरथचरित महाकाव्य का प्रणयन किया है। इसमें दुर्गासप्तशती के प्रथम और तेरहवें अध्याय में वर्णित राजा सुरथ के जीवन चरित का वर्णन है। कवि की जननी दुर्गा के प्रति अगाध निष्ठा से पे्ररित यह काव्य एक आकलनीय रचना है। कवि द्वारा सीता और राधा को भी उसी देवी की अंशभूता के रुप में वर्णित पद्य बड़ा मनोहारी है-

सीता स्वयं सा भुवनस्य धात्री समागता रामगृहे च लक्ष्मीः।

आद्यैव शक्तिर्भवरक्षणाय जाता पृथिव्या जनकस्य कन्या।।13 11/24

कृष्णस्य माया परमेव शक्तिः काचिच्च लोकप्रथिताùप्यदृष्या।

दृश्या च राधा पुरगोपजाता रासेश्वरी या शरदः प्रभेव।।14 11/33

11. अदभुतदूत महाकाव्य-

               जग्गूबकूलभूषण ने महाभारत के उद्योग पर्व की मूल कथा को आधार बनाकर 1969 ई॰ में अदभुतदूत महाकाव्य की रचना की है। इसमे श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर कौरवों की सभा में जाते है और युद्ध की विभीषिका को रोकने के लिए सन्धि का प्रस्ताव रखते है; परन्तु कौरव पक्ष सन्धि के लिए तैयार नहीं होता है। कर्ण द्वारा भाग्य को ढाल बनाकर श्रीकृष्ण को प्रस्तुत अपना पक्ष आजाददायक है-

यद भव्यं तद्भवत्येव नात्र कार्या विचारणा।

सटल्पं तेùन्यथा कर्तुं शक्नुयात् क इहाच्युत।।15

               उल्लेखनीय साक्ष्यों द्वारा स्पष्ट है कि महर्षि व्यास ने अपने सदग्रन्थों द्वारा विश्व को महान और प्रचुर सामग्री भेंट की है। व्यास द्वारा निर्दिष्ट धर्म का साम्राज्य बड़ा ही विस्तृत, व्यापक और सार्वभौम है। आज के इस अराजकतामयी, अमानवीय कुत्सिकतायुक्त समाज का विनाश करने के लिए यदि संसार के सभी मनुष्य महर्षि व्यास के आदर्शों का पालन करें, उनकी शिक्षाओं का अनुकरण करें तो अवश्य ही उन्हें परम शान्ति एवं सफलता मिलेगी।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची-

 1 पद्यपुराण, उ॰ खं॰ 2/9/2

2. यदिहस्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित।।

3. काष्र्णवेदमिमं विद्वान..............................।। महाभारत आदिपर्व 1/266

4. बीसवीं शताब्दी के संस्कृत महाकाव्यों में राष्ट्रीय चेतना, महाराजदी पाण्डेय पृ॰-119

5. ईस्टर्न बुक लिंकर्स 5825, न्यू चन्द्रवाल, जवाहर नगर नई दिल्ली-7 प्रकाशन वर्ष 1991

 6. चरिहरणमहाकाव्यम् 11/51

7. जोधपुर विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित

8. रूक्मिणी प्रकाशन, इन्द्रपुरी ढाँचा, बिहार, सन् 1958

9. राधाचरितमहाकाव्य, 9/64

10. 1939 ई॰ में विजय प्रेस, मुजफ्फरपुर से प्रकाशित।

11. पारिजातहरण महाकाव्य, 3/11

12. प्रकाशक-श्री लल्लन शर्मा पाण्डेय, व्यवस्थापक, गोस्वामी तुलसीदास महाविद्यालय पडरौना देवरिया, उत्तर प्रदेश। सन् 1957 13. क्षेमधारिस्मृति प्रकाशन, मधुबनी (बिहाार), 1967 ई॰

14. तत्रैव

15 क्षेमधारिस्मृति प्रकाशन, मधुबनी (बिहार) 1967ई॰ सन्दर्भ सहायक ग्रन्थ सूची

16. आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास-ब॰ उपाध्याय, जगन्नाथ पाठक उ॰प्र॰ संस्कृत संस्थान, लखनऊ।

17. आधुनिक संस्कृत काव्यपरम्परा, केशव राव मुसलगौवकर, चैखम्बा, वाराणसी।

18. ब्राह्मवैवर्तपुराण, गीताप्रेस, गोरखपुर।

19. मार्कण्डेयपुराण, वर्ष 21, गीता प्रेस, गोरखपुर

20. विष्णुपुराण, गीता प्रेस, गोरखपुर

21.श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण, वर्ष-34, गीता प्रेमस, गोरखपुर

22. शिवमहापुराण, गीता प्रेस, गोरखपुर