गुप्तकालीन औद्योगिक विकास

उमाशंकर सिंह


स्ंक्षेपिका


प्राचीन भारत में उद्योग आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण आधार था। उद्योग-धंधों के ऐतिहासिक प्रगति पर दृष्टिपात करने से इसके पुरातन स्वरूप का आभास होता है। इस आर्थिक व्यवस्था ने मानवीय क्रियाकलापों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वस्तुतः इसके विकास की प्रक्रिया ने तत्कालीन भौगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक तत्वों का पर्याप्त योगदान रहा है। यद्यपि मेरे शोध पत्र का विषय ‘गुप्तकालीन औद्योगिक विकास’ एक निश्चित काल तक सीमित है तथा विषय को अधिक व्यापक और विश्लेषणात्मक बनाने के उद्देश्य से मैंने पूर्व गुप्तकाल एवं हर्षोŸार कालीन स्रोतों का अध्ययन कर गुप्तकालीन औद्योगिक विकास के बारे में निष्कर्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

की वर्ड: प्राचीन भारत ,औद्योगिक विकास, गुप्तकाल

प्राचीन भारत में उद्योग-धंधों का अर्थ-जगत् में प्रमुख स्थान रहा था। इसे ऐसी व्यवस्था माना गया जिससे विभिन्न प्रकार के कुटीर एवं लघु धंधें पनप सकें। इस प्रक्रिया में शिल्पियों ने भी इसमें न केवल अपना योगदान वरन् अपनी शिल्पदाता के माध्यम से जीविकोपार्जन के साधनों की वृद्धि भी की है। शिल्पियों ने तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार अपनी कार्यदाता में वृद्धि कर उद्योग को राष्ट्रीय अध्यवसाय का रूप प्रदान किया। वास्तव में भारतीय इतिहास में स्वर्णकाल की ख्याति प्राप्त ‘गुप्तकाल का औद्योगिक विकास’ निश्चित ही अध्ययन का महत्वपूर्ण विषय है। प्राचीन भारत की आर्थिक व्यवस्था संबंधी जितनी पुस्तकें एवं  शोध  पत्र प्रकाशित हुए हैं  उनकागहन अध्ययन करने पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि अभी तक गुप्तकाल ीन औद्योगिक विकास पर एक स्वतंत्र तथा व्यापक आयाम वाली कोई कृति प्रस्तुत नहीं की गई जो इस विषय पर प्रबुद्ध प्रकाश डालती है। यद्यपि मेरे शोध पत्र का प्रतिपाद्य विषय ‘गुप्तकालीन औद्योगिक विकास’ एक निश्चित काल तक सीमित है तथा विषय की अधिक व्यापक और विश्लेषणात्मक बनाने के उद्देश्य से मैंने पूर्व गुप्तकाल एवं हर्षोŸार कालीन स्रोतों का अध्ययन कर गुप्तकालीन औद्योगिक विकास का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इन स्रोत सामग्रियों तथा साहित्यिक विदेशी विवरण पुराताŸिवक स्रोत का उपयोग किया गया है।गुप्तकालीन एवं हर्षकालीन मूल ग्रंथों के अंतर्गत 18 पुराणों में से मुख्यतः वायु, ब्रह्मय, मत्स्य, विष्णु, भागवत, अग्नि, मार्कण्डेय, पुराणों, मंजूश्री, मूलश्री मूलकौमुदी महोत्सव, विशाखदŸा-देवी चन्द्रगुप्तम एवं मुद्राराक्षस कालिदासकृत अभिज्ञान शाकुंलतलम्, विक्रमोयोर्पशीयम, ’मालवीकागीमित्रम’, रघुवंश मेघदूतम् और ऋतुसंहार, सुबन्धुकृत वासवदŸाा, बाणभट्टकृत हर्षचरित तथा कादम्बिरी राजशेखर के काव्य मीमांसा, हर्षवर्द्धनकृत प्रियदर्शिका, रत्नावली, नागानन्द कमान्दक नीतिसार, वृहस्पति स्मृति, नारद स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि से आवश्यक संदर्भ संकलित किये गए हैं।
विदेशी विवरणों के रूप में चीनी लेखक की कृतियाँ फाहियान, युवानच्वान, इत्सिंग के कृतियों का आवश्यकतानुसार प्रयोग किया गया है। गुप्तकालीन औद्योगिक विकास में विभिन्न पक्षों का समवेत अध्ययन करने हेतु पुराताŸिवक स्रोतों का प्रमुख स्थान है। आर्थिक ज्ञानोपार्जन की दृष्टि से 42 गुप्तवंशीय अभिलेखों में से कुछ अभिलेखों का महत्वपूर्ण स्थान है। ऐसे अभिलेखों के अंतर्गत समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति, एरण प्रशस्ति, नालंदा ताम्रशासन, चन्द्रगुप्त द्वितीय के मथुरा स्तंभ लेख, उदयगिरि का गुहालेख, मंदसौर का शिलालेख, दामोदरपुर ताम्रलेख, स्कंदगुप्त के लेख, जुनागढ़ प्रशस्ति, भीतरी प्रशस्ति आदि उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार हर्षकालीन अभिलेखों से भी उद्योग-धंधों के स्थापित एवं विकसित होने के ठोस प्रमाणों की जानकारी मिलती है।
विवेच्यकालीन औद्योगिक स्थिति पर प्रकाश डालने हेतु मुहरों का अध्ययन करना प्रासंगिक है। इस दृष्टि से गाजीपुर जनपद, उŸार प्रदेश से प्राप्त कुमारगुप्त तृतीय की चाँदी और तांबे मिश्रित धातुएँ की मुहरें वसाढ़ (प्राचीन वैशाली जिला मुजफ्फरपुर) से प्राप्त ध्रुवस्वामिनी तथा घटोत्चक गुप्त की मिट्टी की मुहरें तथा नालंदा से प्राप्त मिट्टी की मुहरें महत्वपूर्ण हैं। इसी प्रकार मुद्राशास्त्रीय साक्ष्यों के अंतर्गत गुप्त एवं वर्द्धन वंशीय राजाओं के सिक्कों का स्थान औद्योगिक व्यवस्था के इतिहास के लिए उपयुक्त है इन साक्ष्यों का यथासंभव उपयोग करके गुप्तकालीन औद्योगिक विकास के पहलुओं का उल्लेख किया गया है।
गुप्तकालीन औद्योगिक विकास की सर्वांगीण व्याख्या करने के लिए उपयुक्त स्रोत के अतिरिक्त कतिपय ऐसे आधुनिक ग्रंथों का सहारा लिया गया है जिनमें आर्थिक जीवन पर प्रकाश डाला गया है। इस कोटि के ग्रंथों के अंतर्गत सर्वश्री एन0सी0 बंदोपाध्याय कृत ‘एकोनोमिक लाइफ एण्ड प्रोग्राम इन ऐंषियेंट इंडिया’, के0वी0 रंगास्वामी कृत ‘ऐस्पेक्ट्रम आॅफ ऐसेंट एकोनोमिक थ्राट’, एस0के0 दास कृत ‘दि एकोनोमिक लाइफ आॅफ नार्दन इण्डिया’, एस0 के0 मैती कृत ‘द एकोनोमिक लाइफ आॅफ नार्दन इंडिया इन गुप्त पीरियड’, ललनजी गोपाल कृत ‘दि एकोनोमिक लाइफ आॅफ नार्दन इंडिया आदि कृतियाँ उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त औद्योगिक इतिहास के संदर्भ में मुझे अनेक पश्चिमी विद्वानों की कृतियाँ-एल0डी0 वर्निट कृत ‘एण्टीक्विटीज आॅफ इंडिया‘, ए0ए0 बुश कृत ‘ए सर्वे आॅफ एकोनोमिक्स एण्ड इकोनोमिक लाईफ इन ऐंशियेंट इंडिया’, विलडयुरेएट कृत ‘दि स्टोरी आॅफ सिविलाइजेशन’ से जानकरी प्राप्त हुई है।
इसी प्रकार कतिपय विद्वानों के लेखों यथा एस0के0 राय का लेख मिसालाजी एण्ड माइनिंग ऐंशिएंट इंडिया, एम0ए0 बनर्जी का लेख ‘आॅन मेटलस एंड मेटल लर्जी इन इंडिया’, जी0के0 राय ‘कोस्र्ड लेबर इन ऐंसेंएट इंडिया’ आदि औद्योगिक ज्ञान हेतु उल्लेखनीय है।
निष्कर्षतः यह पाया गया कि गुप्तकाल में औद्योगिक विकास अपनी उन्नति के चरम निखार पर था जिससे संपूर्ण प्रजा लाभान्वित थी और सुखमय जीवन व्यतीत कर रही थी।
सन्दर्भः
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