मलिन बस्तियों में कुपोषण की समस्या: वर्तमान परिदृश्य

सीमा सोनकर

जूनियर रिसर्च फेलो, समाजशास्त्र विभाग,

 महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी।

सारांश

           राष्ट्र के सर्वांगीण विकास मंे नागरिकों के शारीरिक तथा मानसिक क्षमता का महत्वपूर्ण योगदान होता है, जिसकी नींव बाल्यावस्था में ही पड़ जाती है। इसलिए बच्चों के स्वास्थ्य, आहार तथा पालन-पोषण पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है, क्योंकि स्वास्थ्य शरीर ही स्वस्थ मस्तिष्क का आधार है। कहावत है जैसा बीज होगा वैसा ही पौधा उगेगा। बच्चों के जीवन के आरम्भिक वर्ष हर दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है और स्वास्थ्य की दृष्टि से तो विशेषकर, क्योंकि बचपन में ही यदि स्वास्थ्य उत्तम रहेगा तो बड़े होने पर भी उत्तम स्वास्थ्य विकसित होगा। यदि बचपन में ही बच्चा अस्वस्थ और रोगी रहता है तो बड़ा होने पर भी अस्वस्थ और रोगी व्यक्ति ही बनेगा।

की वर्डः मलिन बस्तियां,कुपोषण, आहार एवं पोषण

प्रस्तावना:-

               मलिन बस्तियां, आधुनिक महानगरों का एक अहम हिस्सा है, जैसे-जैसे नगरीकरण बढ़ रहा है, वैसे-वैसे दुनियां भर में मलिन बस्तियों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। मलिन बस्तियां अत्यधिक आर्थिक विषमता का प्रतीक होती है। ये मलिन बस्तियां समूचे विश्व में पायी जाती है और इस समस्या का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि जो शहर जितना अधिक विकसित और बड़ा होता है वहाँ इन मलिन बस्तियों की तादात उतनी ही अधिक होती है। मलिन बस्तियां नगरीकरण के सह-उत्पाद के रूप में होती है। जैसे-जैसे नगरीकरण बढ़ता जाता है वैसे-वैसे मलिन बस्तियों को अलग-अलग नाम से जाना जाता है, जैसे-ब्लाइट, स्लम, स्कवैटर, सेटलमेंट, शेंटी टाउन, घेट्टो आदि। मलिन बस्तियों को दिल्ली में झुग्गी-झोपड़ी, मुम्बई में झोपड़पट्टी, चेन्नई में चेरीज, कोलकाता में बस्ती और कानपुर में अहाता आदि नामों से पुकारा जाता है।

           विश्व के सभी बड़े नगरों में मलिन बस्तियां पायी जाती है, क्योंकि असमानताएं और विषमताएं तो सर्वव्यापी हैं। विश्व के सबसे खूबसूरत शहर पेरिस में लगभग 36 प्रतिशत आवास मलिन बस्तियों में ही है। संयुक्त राष्ट्र संघ के न्यूयार्क, शिकागों और सैन फ्रांसिस्को के अलावा ऐसे अन्य शहरों में मलिन बस्तियां अधिक है जहाँ नीग्रो अधिक संख्या में आकर बस गये हैं। भारत में भी लगभग ऐसी ही स्थिति है। हमारे यहां नगरीय जनसंख्या का 22 प्रतिशत हिस्सा मलिन बस्तियों में रहता है। योजना आयोग के अनुसार बड़े महानगरों में 35 प्रतिशत जनसंख्या मलिन बस्तियों में निवास करती है।

           एशिया में सबसे बड़ी मलिन बस्ती धारावी मुम्बई में है जो कुल 4.5 वर्ग किलो मीटर क्षेत्र में फैली है। अत्यधिक मलिन बस्ती निवासियों की संख्या के कारण ही मुम्बई को ’स्लम राजधानी’ या स्लमपोलिस कहा जाता है। मुम्बई की लगभग 44 प्रतिशत जनसंख्या मलिन बस्तियों में रहती है, जबकि कोलकाता में 40 प्रतिशत लोग ऐसी बस्तियों में रहते हैं। इसी प्रकार चेन्नई में 39 प्रतिशत और दिल्ली में 38 प्रतिशत लोग मलिन बस्तियों में रहते हैं।

                चूंकि क्षेत्रीय असमानताओं के कारण महानगरों की ओर अत्यधिक आप्रवास हो रहा है, इसलिए यहाँ आवास की समस्या पैदा हो रही है और इस समस्या के समाधान के रूप में मलिन बस्तियां उभर कर आ रही है और समय के साथ इन मलिन बस्तियों की संख्या व आकार लगातार बढ़ता जा रहा है। ’इंडिया टुडे’ के एक सर्वेक्षण 2003 के अनुसार भारतीय नगरों की 35 प्रतिशत जनसंख्या एक कमरे के आवासों में रहती हैं। ये मलिन बस्तियां अपराध का गढ़ होती हैं, कहा भी गया है कि- ’’ईश्वर ने गाँव बसाए, मानव ने नगर बनाए, और शैतान ने मलिन बस्तियां बसाई।’’

                किसी भी मलिन बस्ती की कल्पना करने के बाद एक अमिट एवं विस्मरणीय भावना मन में उपजती है कि मलिन बस्तियां सामूहिक उपेक्षा का शिकार होती है और समान नागरिकता के स्वीकृत मानकों और अधिकारों का अनादर करती है। मलिन बस्तियाँ नगर का कैंसर है। ’नेल्स एन्डर्सन’ मलिन बस्तियों को अव्यस्थित, निम्न आय वर्ग द्वारा अति भीड़ भरी, विभिन्न पेशा को करने वाले, स्वास्थ्य एवं सफाई के प्रति उदासीन सामाजिक रूप से एकांकी प्रवृत्ति द्वारा अभिलक्षित माना है। दूसरी ओर ’डी0 आर0 हंटर’ का विश्लेषण मलिन बस्तियों की परिस्थितिकी की पहचान इस प्रकार करता है कि मलिन बस्तियाँ सम्पन्नों के बीच उच्च या निम्न निर्धनता की पूंज है। आवासों की दयनीय दशा, अस्वास्थ्यकर वातावरण, स्कूली शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं, कल्याण सेवाओं का अभाव यहाँ रहता है।

           निर्धनता मलिन बस्तियों की आधारभूत वास्तविकता है। इसे नहीं बदला जा सकता, उनकी गरीबी उनके अभिक्रम की पूंजी है। आज मलिन बस्ती निवासी, गरीब व्यक्तियों के समक्ष पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि अनेक प्रकार की समस्यायें है। आज के औद्योगिक समाज में किसी भी जगह पर कार्य कर रहे मलिन बस्ती गरीब निवासियों की स्थिति अच्छी नहीं है। जिसके फलस्वरूप इनकी कार्य सन्तुष्टि भी प्रभावित होती है। किसी भी सामाजिक सभ्यता के प्रगति का आंकलन केवल भौतिकता के आधार पर नहीं किया जा सकता, अपितु उन्नतिशील सभ्यता की पहचान वही है जो व्यक्ति को समुचित विकास का अवसर प्रदान करें। मलिन बस्तियाँ ऐसे सामाजिक, आर्थिक जीन को प्रतिबिम्बित करती है जहाँ पर गरीबी, अशिक्षा, भीड़ की अधिकता, आवास एवं स्वास्थ्य की बढ़ती हुई खराब स्थिति, कुपोषण, दूषित पर्यावरण एवं सामान्य नागरिक सुविधाओं की अनुपलब्धता होती है।

               मलिन बस्ती को अस्वच्छता, सामाजिक अकेलापन,  निर्धनता, असामान्य व्यवहार, उदासीनता आदि लक्षणों से अभिलक्षित किया जा सकता है। सामान्यतया मलिन बस्तियों के निवासी आस-पास के सुविधा सम्पन्न लोगों से तिरस्कृत रहते हैं। प्रशासनिक व्यवस्था में उनकी कोई आवाज नहीं। वे लोग इसे शंका की दृष्टि से देखते हैं जहाँ अपराधी एवं प्रतिबंधित या अवांछनीय तत्वों का निवास है। इसीलिए मलिन बस्ती को ;म्अपस ंतमंद्ध बुराई के क्षेत्र से सम्बोधित किया गया है।

               मलिन बस्तियों मंे कुपोषण की समस्या केवल विकासशील देशों में ही नहीं अपितु विकसित देशों में भी विद्यमान है। इसका सर्वाधिक बुरा प्रभाव विकासशील देशों को झेलना पड़ रहा है। जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग कुपोषण का शिकार है, जो कि भारत वर्श में भी बच्चों की मानसिक एवं शारीरिक सामान्य विकास की गति में अवरोधक है। कुपोषण से शारीरिक विकलांगता तथा गम्भीर परिस्थितियों में, यदि चिकित्सकीय सुविधा न मिल तो बच्चे की मृत्यु का कारण भी बन जाती है। कुपोषण से बच्चे की बृद्धि एवं विकास की गति अत्यन्त धीमी हो जाती है तथा कभी-कभी वृद्धि एवं विकास की दर लगभग शून्य हो जाती है। व्यक्तियों के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा नैतिक विकास के लिए सन्तुलित आहार का सेवन अनिवार्य है। फलस्वरूप वह अधिक परिश्रम कर सकता है तथा खेल-कूद में सक्रिय रूप से भाग ले सकता है। पोषण का आयु ;स्वदह मअपदहद्ध पर भी प्रभाव रहता है। कुपोषण के कारण भारत में अनेकों बच्चे पाँच साल से कम उम्र में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।

           आहार-सर्वेक्षणों के अनुसार हमारे देश की अधिकांश जनता का भोजन पोषक तत्वों की दृष्टि से अत्यन्त अपर्याप्त है। अपर्याप्तता गुणात्मक तथा परिमाणात्मक दोनों दृष्टियों से है। गरीब जनता की कैलोरी माँग तक की पूर्ति नहीं हो पाती, अतः कमजोर आर्थिक स्थिति वाले निम्न तथा मध्यम वर्गों में कुपोषण की समस्या अत्यन्त विकराल रूप लेकर खड़ी है। इसका सबसे अधिक प्रभाव छोटे बच्चों, गर्भवती व दूध पिलाती माताओं पर पड़ता है। शरीर में पोषण तत्वों का अभाव मुख्यतः दो कारणों से होता है-प्रथम, दोषयुक्त भोजन के सेवन से, अर्थात जिस भोजन में पोषक तत्वों के गुण तथा परिमाण का अभाव हो, पोषक तत्वों के असन्तुलन के कारण भी भोजन दोषयुक्त बन जाता है। द्वितीय अभायुक्त भोजन के सेवन से भी कुपोषण हो जाता है।

           जब व्यक्ति को उसकी शारीरिक आवश्यकता के अनुकूल उपयुक्त मात्रा में सभी भोज्य तत्व नहीं मिलते या आवश्यकता से अधिक मिलते हैं, जिसके कारण शरीर की वृद्धि और विकास तथा उसकी क्रियाशीलता पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है तो यह कुपोषण कहलाता है। कुपोषण का एक प्रमुख कारण शरीर की आवश्यकतानुसार उपयुक्त एवं पौष्टिक भोजन का अभाव हो सकता है। भोजन मात्रा में कम या उसमें ऐसे तत्वों की कमी हो सकती है जो शरीर के स्वास्थ्य एवं वृद्धि और विकास के लिए वांछित है। व्यक्ति की भोजन सम्बन्धी आवश्यकताएँ उसकी आयु, कार्य तथा शारीरिक अवस्था के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है। भोजन आवश्यकता के अनुकूल नहीं हो तथा स्थिति अधिक समय तक बनी रहती है तो भी कुपोषण का होना स्वभाविक है।

           देश में पर्याप्त भोज्य पदार्थ उपलब्ध होते हुए भी आय के असमान वितरण के कारण, अथवा भोज्य-पदार्थों की अनुचित वितरण व्यवस्था अथवा अज्ञानता के कारण उपभोक्ताओं को भोज्य सामग्री प्राप्त नहीं हो पाती। ये पोषणात्मक विकार का कारण बन जाते हैं। इससे बच्चे व वृद्ध अधिक प्रभावित होते हैं, क्योंकि इनकी आहार सम्बन्धी विशेष प्रकार की आवश्यकता होती है। अधिकांशतः भारतीय जनसंख्या अभी भी उनका वातावरण विटामिन खनिज पदार्थ और प्रोटीन युक्त पदार्थों का प्रयोग नहीं करते, जिसके कारण शिशुकाल से ही कुपोषण के लक्षण प्रदर्शित होने लगते हैं। भारत में निम्न व मध्यम वर्ग के व्यक्ति दूध, दही, मक्खन, फल, अण्डा आदि क्रय नहीं कर पाते अतः उनको समुचित पोषण प्राप्त नहीं हो पाता।

           पोषण मानव जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है। इसके बिना वह जीवित नहीं रह सकता। प्रत्येक प्राणी सर्वप्रथम अपनी इसी आवश्यकता की पूर्ति हेतु प्रयास करता है। उसे जीवन में अनेक महत्वपूर्ण कार्य करने होते हैं। व्यक्ति साहस और निरोग शरीर उसकी सफलताओं और उपलब्धियों की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। स्वस्थ एवं सशक्त शरीर का निर्माण उचित पोषण पर निर्भर करता है। टर्नर महोदय ने पोषण के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि ’’पोषण इन प्रक्रियाओं का संयोजन है, जिनके द्वारा जीवित प्राणी अपनी क्रियाशील को बनाये रखने के लिए तथा अपने अंगों की बृद्धि एवं उनके निर्माण हेतु आवश्यक पदार्थों को प्राप्त करता है व उनका उपभोग करता है।’’ इस प्रकार पोषण शरीर में भोजन के विभिन्न कार्य को करने की सामूहिक प्रक्रियाओं का ही नाम है।’’

           पोषण प्राणी की आस्तित्व एवं समुचित विकास हेतु आवश्यक तत्व है। जब कभी भी किसी भी प्राणी का पोषण असन्तुलित हो जाता है तो शरीर प्रणाली में एक-एक अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है। कभी-कभी व्यक्ति पोषक पदार्थों को आहार में ग्रहण करता है, किन्तु पोषक तत्वों की गुणवत्ता की कमी के कारण उसका शारीरिक, मानसिक विकास समुचित ढंग से नहीं हो पाता है।

           देश में अनाज की पैदावार बढ़ रही है, लेकिन लोगों को भोजन से मिलने वाले पोषक तत्वों की मांग घट रही है। देश में भोजन की कमी को दूर करने के लिए जो हरित क्रांति हुई उसने भोजन और पोषण के संकट को हल तो किया मगर कर समस्याएं भी पैदा की। देशभर में लगभग 10 करोड़ लोग आज भी कुपोषण के शिकार हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या 15 प्रतिशत है। विगत तीन दशकों में खाद्यान्न की पैदावार ढाई गुना बढ़ने के बावजूद खाद्यान्न का प्रति व्यक्ति उपभोग घटा है। यह औसत आंकड़े हैं जो गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की वस्तुस्थिति नहीं बताते। यह तो आजादी मिलने के बाद चुनी हुई आर्थिक नीति की औपनिवेशिक दिशा का ही स्वाभाविक नतीजा है क्योंकि हमने परम्परागत खेती की तकनीकों को प्रोत्साहित किया जिसने पहले से अभाव और विवशता में जीते आदमी को और भी परवश बनाया है। कुपोषण की समस्या विकास की समस्या से अलग नहीं है और न ही हमारी सम्पूर्ण कार्य पद्धति से ही अलग करके देखी जा सकती है। यही कारण है कि अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि सचमुच कौन कुपोषण का शिकार है, नतीजन कुपोषण से जूझने के सरकारी कार्यक्रमों का लाभ भी प्रायः वे ही लोग हथिया लेते हैं जो पहले से ही सम्पन्न है। इसका जीता-जागता उदाहरण समाज कल्याण विभाग द्वारा बच्चों को वितरित किए जाने वाले पौष्टिक आहार का है जो गरीब बच्चों तक शायद ही पूरा-पूरा पहुँच पाता है।

           कुपोषण के कुचक्र पर नियंत्रण के लिए जरूरी है कि हर व्यक्ति अपने-अपने क्षेत्र में इस पर रोक लगाने, उपचार व फालोअप की दिशा में सक्रिय भूमिका निभाएं। प्रभावी निगरानी तथा प्रबन्धन के लिए जरूरी है कि सामुदायिक भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाए। हर पंचायत/वार्ड में सरपंच, उप सरपंच, पार्षद, स्वास्थ्य ग्राम तदर्थ समिति, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, आशा कार्यकर्ता, स्कूलों के शिक्षक, पड़ोसी, रिश्तेदार तथा बच्चों के माता-पिता, किशोर, बालिकाएं, गर्भवती महिलाएं तथा स्तनपान कराने वाली माताओं को अपनी स्वयं भूमिका सुनिश्चित करना होगा। तभी कुपोषण में कमी लाई जा सकेगी। इसके लिए जरूरी है कि सभी व्यक्ति, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, आशा ए0एन0एम0, सरपंच, पंच, शिक्षक, स्थानीय संस्थायें आदि कुपोषण के प्रबन्धन में स्वयं की जिम्मेदारी को समझें व उसके अनुसार कार्यवाही करें जिससे कुपोषण में कमी लाई जा सकें।

 सन्दर्भ सूची

  1.  डा0 निशान्त सिंह: सामाजिक न्याय और सतत् विकास, राधा पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2006
  2.  वन्दना वोहरा: पर्यावरणीय समाजशास्त्र संक्षिप्त अध्ययन, ओमेगा पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2008
  3.  डा0 गोविन्द प्रसाद एवं श्रीमती गीतांजलि: जनस्वास्थ्य परिवार कल्याण एवं जनसंख्या नियोजन, डिस्कवरी पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2007
  4. डा0 अशोक डी0 पाटिल: ग्रामीण एवं नगरीय समाजशास्त्र, मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल, संस्करण पंचम् (आवृत्ति)-2007
  5. विमला शर्मा: आहार एवं पोषण विज्ञान, लायल बुक डिपो मेरठ, इन्टरनेशनल पब्लिशिंग हाउस, मेरठ, सप्तम् संस्करण-1983-84
  6. प्रो0 सुधा नारायणन्: आहार नियोजन, रिसर्च पब्लिकेशन्स जयपुर, संस्करण-1998
  7. डा0 श्रीमती जी0पी0 शैरी: पोषण एवं आहार विज्ञान, विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा-1985
  8. डा0 सवलिया बिहारी वर्मा: ग्रामीण भारत के सर्वोन्मुखी विकास एक परिदृश्य, संजय प्रकाशन नई दिल्ली, भारत प्रथम संस्करण-2003