महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापकों एवं अध्यापिकाओं का व्यवसाय सन्तोष का तुलनात्मक अध्ययन

डा0 गजब सिंह 
नीलम दीक्षित 


स्ंक्षेपिका


प्रस्तुत अध्ययन ‘‘महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापकों एवं अध्यापिकाओं व्यवसाय सन्तोष का तुलनात्मक अध्ययन‘‘ में मुख्य उद्देष्य के रूप में नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं का व्यवसाय सन्तोष का तुलनात्मक अध्ययन करना है तथा परिकल्पनाओं के रूप में नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापकों एवं अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष में कोई सार्थक अन्तर नहीं होगा। न्यादर्ष के रूप में ग्रामीण क्षेत्र के 125 अध्यापक व 125 अध्यापिकाऐं तथा शहरी क्षेत्र के 125 अध्यापक व 125 अध्यापिकाओं को, इस प्रकार कुल 500 अध्यापक -अध्यापिकाओं को न्यादर्ष के रूप में चयनित किया गया है। शोधकत्र्री ने अपने इस शोध कार्य में वर्णनात्मक शोध विधि का प्रयोग करके जो परिणाम प्राप्त किए हैं उनकी वैधता की कसौटी के आधार पर निष्कर्ष प्राप्त किये गये हैं। शोधाथिनी ने अपने शोध कार्य हेतु डाॅ0 अमर सिंह, राजकीय महिन्द्रा काॅलेज पटियाला एवं डाॅ0 टी0आर0 शर्मा (सेवानिवृत्त) डीन एवं प्रोफेसर पंजाब विश्वविद्यालय पटियाला पंजाब के उपकरण का प्रयोग किया है। शोध पत्र के निष्कर्ष: नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापकों के व्यवसाय सन्तोष में 0.05 स्तर पर सार्थक अन्तर पाया गया। नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष में कोई सार्थक अन्तर नहीं पाया गया। नगरीय महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष में कोई सार्थक अन्तर नहीं पाया गया। ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष में 0.01 स्तर पर सार्थक अन्तर पाया गया।


की वर्ड: शिक्षाशास्त्र ,शिक्षणरत् अध्यापक ,व्यवसाय सन्तोष, महाविद्यालय


प्रस्तावना: शिक्षा मानव विकास का मूल साधन है। इसके द्वारा मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों तथा जन्मजात शक्तियों का विकास उसके ज्ञान और कला कौशल में वृद्धि तथा व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है और उसे सभ्य, सुसंस्कृत एवं योग्य नागरिक बनाया जाता है और यह कार्य मनुष्य के जन्म से ही प्रारम्भ हो जाता है। विद्यालय में उसकी शिक्षा बड़े सुनियोजित ढंग से चलती है।विद्यालय के साथ-साथ उसे परिवार एवं समुदाय में भी कुछ न कुछ सिखाया जाता है और सीखने-सिखाने का यह क्रम विद्यालय छोड़ने के बाद भी चलता रहता है और जीवन भर चलता रहता है और विस्तृत रूप में देखें तो किसी समाज में शिक्षा की यह प्रक्रिया चलती रहती है। अपने वास्तविक  अर्थ मे किसी समाज में सदैव चलने वाली सीखने-सिखाने की यह सप्रयोजन प्रक्रिया ही  शिक्षा है।
जान लाक महोदय के अनुसार -‘‘जिस प्रकार पौधे का निर्माण कृषि द्वारा होता है। उसी प्रकार बालक का निर्माण शिक्षा द्वारा होता है।’’
      सामाजिक वातावरण में ऐसा पाया जा रहा है कि वर्तमान समय में शिक्षा के स्तर में गिरावट सी आ गई है जिसके लिए किसी सीमा तक शिक्षक उत्तरदायी है शिक्षा चाहे प्राथमिक,माध्यमिक या उच्च क्यों न हो, शिक्षाका सम्पूर्ण भार शिक्षक पर ही होता है। वर्तमान में मध्यम गति से चलने वाली शिक्षाका दोषी कहीं न कहीं शिक्षक ही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि शिक्षक अपने दायित्वों से तो नहीं भटक गये है या शिक्षक अपनी  व्यवसाय सन्तुष्टि से सन्तुष्ट नहीं है तो किस कारण से वे सन्तुष्ट नहीं है? हमारे शिक्षक मुख्य रूप से आर्थिक,सामाजिक, व्यावसायिक, राजनीतिक या व्यक्तिगत कठिनाईयों से घिरे है तथा शिक्षकों के प्रति अपेक्षित सम्मान में कमी दृष्टिगत हो रही है। इन शिक्षकों में व्यवसाय सन्तुष्टि नहीं होती है। जो कि इन शिक्षकों की शिक्षण अभिक्षमता को भी प्रभावित करती है। व्यावसाय एवं जीविका का मानव जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है व्यावसाय मानव को जीवन-यापन का साधनही प्रदान नहीं करता वरन उचित व्यावसाय में स्थान मिलने पर मानव की आत्म संतुष्टि प्राप्त होती हैं तथ उसके आत्म बल का संचार होता है। मानव जीवन में सामाजिक मनोवैज्ञानिक तथा आत्मनिर्भरता बनने में प्रयत्नशील है।
      किसी भी शैक्षिक प्रक्रिया में शिक्षक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है जब शिक्षक शिक्षा को प्रभावशाली बनाने के लिए अभिप्रेरित होगा व अपने कार्य में पूरी तरह संलग्न रहेगा तभी शिक्षण को प्रभावशाली व उत्पादक बना सकेगा। आज देखने में आता है कि शिक्षकों के व्यवसाय एवं उनके कार्य के संघर्ष स्फूर्ति का प्रभाव समाज पर असन्तुलनकारी मात्रा मंे विद्यमान है। यदि अध्यापक के मूल्य उचित नहीं है तो वह स्वयं असफल होने के साथ-साथ शिक्षण उद्देश्यों को भी प्रभावित कर सकता है। उसकी सफलता स्वयं की मानसिक प्रवृत्ति, समायोजन एवं मूल्यों और सार्वभौमिक विकास के बीच सन्तुलन व समरूपता पर निर्भर करती है क्योंकि उनके यही शैक्षणिक कार्य सफलता-असफलता के लिए तुलनात्मक कसौटी प्रस्तुत करते हैं। जो अध्यापक सर्वमान्य शैक्षणिक कार्यो से विचलित होते हैं, उनका अध्यापन कार्य भी निम्न स्तर का होता है, पर प्रश्न यह उठता है कि सर्वमान्य शैक्षणिक कार्य क्या हैं? इस प्रश्न पर दार्शनिक, वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक आदि हमेशा चर्चा के बिन्दु का विषय बना रहता है। किन्तु विद्वानों में मतभेद हैं। जो शैक्षणिक कार्यो में द्वन्द्व की स्थिति उत्पन्न करता है। शैक्षणिक कार्यो में द्वन्द्व के कारण व्यक्ति के उत्साह में कमी पायी जाती है। वह ऊर्जा में ह्ास का अनुभव करता है तथा उसमें हीनता, निराशा व निरर्थकता के भाव उत्पन्न होते हैं। कार्यो के भटकाव से व्यक्तियों के भाव शून्यता एवं निराशावाद की ओर संकेत करता है। व्यक्ति में सांवेगिक पृथकता, आशा का अभाव, निषेधात्मक भाव, आत्मविश्वास का अभाव, आत्म आदर का अभाव, सामाजिक अयोग्यता, आत्मालोचन आदि अनेक मनो-शारीरिक लक्षणों के कारण व्यक्ति में अकार्य क्षमता उत्पन्न हो जाती हैं।  
      शिक्षक विद्यार्थियों को केवल ज्ञान प्रदान करने के लिए ही नही होते वरन् विद्यार्थियों का सम्पूर्ण विकास भी करते है। परन्तु दुःख की बात तो यह है कि इतना महान कार्य करने वाले शिक्षक आज अपने व्यवसाय से सन्तुष्ट नहीं है। इससे स्पष्ट है कि भविष्य में हमारे समाज तथा प्रजातांत्रिक देष को भारी कठिनाईयों का सामना करना पडे़गा। यदि देश के शिक्षक रूपी शिल्पकार  जो देष के भविष्य का निर्माण करते हैं, यदि उनकी अपने व्यवसाय में ही सन्तुष्टि नहीं रह जायेगी तो भविष्य में राष्ट्र का विकास एवं पोषण सम्भव हो पाना कठिन दृष्टिगत होता है।
       विभिन्न शोध अध्ययनों से ज्ञात होता है कि शिक्षकों की आवश्यकताऐं जैसे-सुरक्षा, प्रोन्नति के अवसर, उचित कार्य दशाएंे, योग्यतानुसार वेतन आदि शिक्षकों की व्यवसाय के प्रति अभिवृत्तियों व मूल्यों को प्रभावित करते हंै, जिससे शिक्षक कार्यकुशलता तो प्रभावित होती ही है साथ ही उसमें कार्य सन्तोष भी प्रभावित होती है, अर्थात शिक्षकों की कार्य सन्तुष्टि उनकी कार्य शैली को तथा उनकी कार्यकुशलता को पूर्ण रूपेण प्रभावित करती है।
प्रस्तुत शोध कार्य के निम्नवत् उद्देश्य हैं-
1. नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापकों का व्यवसाय सन्तोष का तुलनात्मक अध्ययन करना।
2. नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापिकाओं का व्यवसाय सन्तोष का तुलनात्मक अध्ययन करना।
3. नगरीय महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं का व्यवसाय सन्तोष का तुलनात्मक अध्ययन करना।
4. ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं का व्यवसाय सन्तोष का तुलनात्मक अध्ययन करना।
प्रस्तुत शोध की परिकल्पना -
1. नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापकों के व्यवसाय सन्तोष में कोई सार्थक अन्तर नहीं होगा।
2. नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष में कोई सार्थक अन्तर नहीं होगा।
3. नगरीय महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष में कोई सार्थक अन्तर नहीं होगा।
4. ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष में कोई सार्थक अन्तर नहीं होगा।

सम्बन्धित साहित्य
पूर्व में किये गये शोध कार्यों में से कुछ का ही उल्लेख किया गया है।
  व्हाइट ए0 डब्ल्यू (2007) ने कार्य-सन्तुष्टि से सम्बन्धित सभी कारकों व्यक्तिगत, संस्थागत और पद के बीच सम्बन्ध को ज्ञात करने के लिए अध्ययन किया। शोध मंे बताया गया कि 79: को उनकी संस्था उपाधि प्राप्त हेतु सहयोग प्रदान कर रही थी। जबकि सम्पूर्ण संस्थाओ की केवल 20ण्6ः फैकल्टी डाॅक्टर उपाधि धारक थे। एट्रीया श्रण्ैण् ;2009द्ध ने महाविद्यालय स्तर के शिक्षकों की शिक्षण प्रभावशीलता तथा उनका शिक्षक मूल्यांे और कार्य सन्तुष्टि के बीच सम्बन्ध का अध्ययन किया। अध्ययन में पाया गया कि शिक्षण प्रभावशीलता सार्थक रूप से मूल्यों और कार्य सन्तुष्टि से सहसम्बन्धित है। डाॅ0 गुप्ता विनीता (2010) अनुदानित एवं स्ववित्तपोषित महाविद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों की कार्य सन्तुष्टि एवं व्यावसायिक आकांक्षा का तुलनात्मक अध्ययन करके पाया कि  स्ववित्तपोषित महाविद्यालयों के पुरूष एवं महिला के शिक्षकों की व्यावसायिक आकांक्षा में सार्थक अन्तर पाया गया तथा पुरूषों की व्यावसायिक आंकाक्षा उच्च पाई गई। अनुदानित महाविद्यालयों के पुरूष एवं महिला शिक्षकों की व्यावसायिक आकांक्षा में सार्थक अन्तर पाया गया। चैधरी डाॅ0, के0के0, कुमार अरविन्द (2010) अशासकीय एवंम विद्या भारती द्वारा संचालित माध्यमिक विद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों की व्यावसायिक संतुष्टि का तुलनात्मक अध्ययन में पाया कि अशासकीय एवं विद्याभारती द्वारा संचालित माध्यमिक विद्यालयों में कार्यरत् समस्त/पुरूष/महिला/शहरी/ग्रामीण शिक्षकों की व्यावसायिक संतुष्टि में सार्थक अन्तर नहीं है। आजमी कायनात, सक्सेना दीप्ति (2012) ने स्ववित्तपोषित तथा अनुदानित माध्यमिक विद्यालयों में कार्यरत विज्ञान विषय के शिक्षकों की कार्य संतुष्टि का तुलनात्मक अध्ययन किया तथा पाया कि माध्यमिक स्तर के स्ववित्तपोषित तथा अनुदानित विद्यालयों में कार्यरत विज्ञान वर्ग के शिक्षकों की सामाजिक आधार पर कार्य सन्तुष्टि में कोई सार्थक अन्तर नहीं है।
शोध विधि:
शोधार्थी जिस ढंग से शोध कार्य पूर्ण करने की योजना बनाकर कार्य पूर्ण करता है उसे शोध विधि कहते हैं। शोध की विधियों में प्रमुख ऐतिहासिक, वर्णनात्मक, प्रयोगात्मक, क्रियात्मक और तुलनात्मक आदि हैं। शोधकत्र्री ने अपने इस शोध कार्य में वर्णनात्मक शोध विधि का प्रयोग करके जो परिणाम प्राप्त किए हैं उनकी वैधता की कसौटी के आधार पर निष्कर्ष प्राप्त किये गये हैं।
न्यादर्श:
1. प्रस्तुत शोध अध्ययन में केवल जनपद कानपुर के छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय कानपुर से सम्बद्ध शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्र के महाविद्यालयों से अध्यापक एवं अध्यापकों को प्रतिदर्ष के रूप में चयन वर्गबद्व प्रतिचयन विधि (ैजतंजपपिमक त्ंदकवद ैंउचसपदह ज्मबदपुनम) द्वारा किया गया है।
2. शोध अध्ययन में ग्रामीण क्षेत्र के 125 अध्यापक व 125 अध्यापिकाऐं तथा शहरी क्षेत्र के 125 अध्यापक व 125 अध्यापिकाओं को, इस प्रकार कुल 500 अध्यापक-अध्यापिकाओं को न्यादर्ष के रूप में चयनित किया    गया है।
शोध अध्ययन में प्रयुक्त उपकरण:
किसी समस्या के अध्ययन हेतु नवीन तथा अज्ञात दत्त संकलित करने के लिए अनेक विधियों का प्रयोग किया जा सकता है। प्रत्येक प्रकार के अनुसंधान के लिए दत्त संकलित करने हेतु अथवा नवीन क्षेत्र का उपयोग करने हेतु कतिपय यन्त्रों अथवा उपकरणों की आवश्यकता होती है। इन्हीं यंत्रों को उपकरण कहते हैं। शोधकत्र्री ने अपने शोध कार्य हेतु चर व्यवसाय सन्तोष हेेतु डाॅ0 अमर सिंह, राजकीय महिन्द्रा काॅलेज पटियाला एवं डाॅ0 टी0आर0 शर्मा (सेवानिवृत्त) डीन एवं प्रोफेसर पंजाब विश्वविद्यालय पटियाला पंजाब के उपकरण का प्रयोग  किया है।
प्रस्तुत शोध में प्रयुक्त सांख्यिकीय विधियाँ: न्यादर्श के कुल शिक्षकों के मध्यमान व मानक विचलन तथा प्रमाणिक त्रुटि व क्रान्तिक निष्पत्ति ज्ञात की गई है।

आंकड़ों का संकलन, विश्लेषण एवं व्याख्या:
प्राप्त परिणामों का सारणीयन व उनकी व्याख्या इस प्रकार है-
तालिका सं0-1
नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापकों के व्यवसाय सन्तोष का तुलनात्मक अध्ययन:
क्रम सं0     क्षेत्र
छ ड ैण्क्ण् ैम्कण् क्रान्तिक मान सार्थकता
01 नगरीय क्षेत्रों के महाविद्यालयों में शिक्षणरत्    अध्यापक 125 81.76 13.83
1.94
2.54
     ’
02 ग्रामीण क्षेत्रों के महाविद्यालयों में शिक्षणरत्  अध्यापक 125 76.82 16.78  
0ण्05 स्तर पर सार्थक

तालिका संख्या-1 से स्पष्ट होता है कि नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापकों (छत्र125) के व्यवसाय सन्तोष का परीक्षण ज्ञात करने पर प्राप्ताँकों का मध्यमान क्रमशः 81.76 एवं 76.82 तथा मानक विचलन क्रमशः 13.83 व 16.78 पाया गया। दोनों के मानों में अन्तर पाया गया, यह अन्तर सार्थक है या नहीं, के लिए क्रान्तिक अनुपात मान की गणना करने पर यह मान 2.54 प्राप्त हुआ जो कि सार्थकता सारणी में देखने से ज्ञात होता है कि यह मान 1.96 से अधिक एवं 2.56 से कम पाया गया। अतः इस प्रकार कहा जा सकता है कि नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापकों के व्यवसाय सन्तोष में 0.05 स्तर पर सार्थक अन्तर पाया गया।
अतः परिकल्पना संख्या-1 ‘‘नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापकों के व्यवसाय सन्तोष में कोई सार्थक अन्तर नहीं होगा’’- निरस्त की जाती है।
नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापकों के व्यवसाय सन्तोष में 0.05 स्तर पर सार्थक अन्तर पाया गया। इसके कई कारण हो सकते हैं-
1. नगरीय तथा ग्रामीण महाविद्यालयों में
शिक्षणरत् अध्यापकों के व्यवसाय सन्तोष के प्राप्तांकों में नगरीय क्षेत्र के अध्यापकों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्र के अध्यापकों का मध्यमान कम तथा मानक विचलन अधिक पाया गया। अतः कहा जा सकता है कि नगरीय क्षेेत्र के महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापकों का व्यवसाय सन्तोष तुलनात्मक रूप से उच्च पाया गया।

2. चूँकि नगरीय क्षेत्र में अध्यापकों के व्यवसाय के लिए अनेक विकल्प होते है। जिससे उनका अनुभव, शैक्षिक योग्यता,मानसिक योग्यता, बौद्धिक विकास आदि का विकास होता है। तथा उनके व्यवसाय में भी चारचाँद लगते है। अतः कहा जा सकता है कि ग्रामीण क्षेत्र की तुलना में नगरीय क्षेत्र के अध्यापकों का व्यवसाय सन्तोष अधिक रूचिकर एवं प्रभावी होता है। जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में व्यवसाय के लिए स्थान कम होते है। उन्हें उतने में ही सन्तोष करना पड़ता है।

ग्राफ सं0-1
नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापकों के व्यवसाय सन्तोष का तुलनात्मक अध्ययन:

  ग्राफ संख्या-1 से स्पष्ट होता है कि नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापकों (छत्र125) के व्यवसाय सन्तोष का परीक्षण ज्ञात करने पर प्राप्ताँकों का मध्यमान क्रमशः 81.76 एवं 76.82 तथा मानक विचलन क्रमशः 13.83 व 16.78 पाया गया। तालिका सं0-2
नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष का तुलनात्मक अध्ययन:

क्रम सं0     क्षेत्र
छ ड ैण्क्ण् ैम्कण् क्रान्तिक मान सार्थकता
01 नगरीय क्षेत्रों के महाविद्यालयों में शिक्षणरत्  अध्यापिकाऐं 125 80.06 8.19
1.66

1.68   
   छण्ैण्
02 ग्रामीण क्षेत्रों के महाविद्यालयों में शिक्षणरत्  अध्यापिकाऐं 125 82.85 16.69  
छण्ैण् असार्थक

तालिका संख्या-2 से स्पष्ट होता है कि नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापिकाओं (छत्र125) के व्यवसाय सन्तोष का परीक्षण ज्ञात करने पर प्राप्ताँकों  का मध्यमान क्रमशः 80.06 एवं 82.85 तथा मानक विचलन क्रमशः 8.19 व 16.69 पाया गया। दोनों के मानों में अन्तर पाया गया, यह अन्तर सार्थक है या नहीं, के लिए क्रान्तिक अनुपात मान की गणना करने पर यह मान 1.68 प्राप्त हुआ जो कि सार्थकता सारणी में देखने से ज्ञात होता है कि यह मान 1.96 एवं 2.56 से कम पाया गया। अतः इस प्रकार कहा जा सकता है कि नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष में कोई सार्थक अन्तर नहीं पाया गया।
अतः परिकल्पना संख्या-2 ‘‘नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष में कोई सार्थक अन्तर नहीं होगा’’- स्वीकृत की जाती है।
नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष में कोई सार्थक अन्तर नहीं पाया गया। इसके कई कारण हो सकते हैं-
1. नगरीय तथा ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष के प्राप्तांकों में नगरीय क्षेत्र के अध्यापिकाओं की तुलना में ग्रामीण क्षेत्र के अध्यापिकाओं का मध्यमान अधिक तथा मानक विचलन कम पाया गया। अतः कहा जा सकता है कि ग्रामीण क्षेेत्र के महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापिकाओं का व्यवसाय सन्तोष तुलनात्मक रूप से उच्च पाया गया।
2. चूँकि ग्रामीण क्षेत्रों में भी शिक्षा के सभी साधन आज के वैज्ञानिक युग में परिपूर्ण हो चुके है। संचार माध्यम, इंटरनेट, मोबाइल सेवा आदि ऐसे माध्यम है जिनकी सहायता से शिक्षा की गतिविधियों को उच्च किया जा सकता है। अतः ग्रामीण क्षेत्रों की अध्यापिकाएं इन सब साधनों से वंचित नही है वह अपनी शिक्षण अभिक्षमता को पूर्ण करने हेतु इन साधनों का भरपूर प्रयोग कर अपने व्यवसाय सन्तोष को पूर्ण करती है

ग्राफ सं0-2
नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष का तुलनात्मक ग्राफीय अध्ययन:

 

ग्राफ संख्या-2 से स्पष्ट होता है कि नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापिकाओं (छत्र125) के व्यवसाय सन्तोष का परीक्षण ज्ञात करने पर प्राप्ताँकों  का मध्यमान क्रमशः 80.06 एवं 82.85 तथा मानक विचलन क्रमशः  8.19 व 16.69 पाया गया।
तालिका सं0-3
नगरीय महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष का तुलनात्मक अध्ययन:
क्रम सं0     क्षेत्र
छ ड ैण्क्ण् ैम्कण् क्रान्तिक मान सार्थकता
01 नगरीय क्षेत्रों के महाविद्यालयों में शिक्षणरत्  अध्यापक 125 81.76 13.83
1.43
1.18
  छण्ैण्
02 नगरीय क्षेत्रों के महाविद्यालयों में शिक्षणरत्  अध्यापिकाऐं 125 80.06 8.19  

छण्ैण् असार्थक
तालिका संख्या-3 से स्पष्ट होता है कि नगरीय महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं (छत्र125) के व्यवसाय सन्तोष का परीक्षण ज्ञात करने पर प्राप्ताँकों  का मध्यमान क्रमशः 81.76 एवं 80.06 तथा मानक विचलन क्रमशः 13.83 व 8.19 पाया गया। दोनों के मानों में अन्तर पाया गया, यह अन्तर सार्थक है या नहीं, के लिए क्रान्तिक अनुपात मान की गणना करने पर यह मान 1.18 प्राप्त हुआ जो कि सार्थकता सारणी में देखने से ज्ञात होता है कि यह मान 1.96 एवं 2.56 से कम पाया गया। अतः इस प्रकार कहा जा सकता है कि नगरीय महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं
अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष में कोई सार्थक अन्तर नहीं पाया गया।
अतः परिकल्पना संख्या-3 ‘‘नगरीय महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष में कोई सार्थक अन्तर नहीं होगा’’- स्वीकृत की जाती है।
नगरीय महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष में कोई सार्थक अन्तर नहीं पाया गया। इसके कई कारण हो सकते हैं-
1. नगरीय क्षेत्रों के महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष के प्राप्तांकों में नगरीय क्षेत्र के अध्यापिकाओं की तुलना में नगरीय क्षेत्र के अध्यापकों का मध्यमान तथा मानक विचलन अधिक पाया गया। अतः कहा जा सकता है कि नगरीय क्षेेत्र के महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापकों का व्यवसाय सन्तोष तुलनात्मक रूप से उच्च पाया गया।
2. चूँकि नगरीय क्षेत्र में अध्यापकों के व्यवसाय के लिए अनेक विकल्प होते है। जिससे उनका अनुभव, शैक्षिक योग्यता, मानसिक योग्यता, बौद्धिक विकास आदि का विकास होता है। तथा उनके व्यवसाय में भी चारचाँद लगते है। जबकि नगरीय क्षेत्रों की अध्यापिकाओं को कार्य करने के या व्यवसाय रूचि के विकल्प तो अनेक होते है परन्तु उनके पास इतना अधिक अन्य कार्य होते है जिससे वह उनमें अधिक रूचिकर नही होती हैं।


ग्राफ सं0-3
नगरीय महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष का तुलनात्मक ग्राफीय अध्ययन:

 

  ग्राफ संख्या-3 से स्पष्ट होता है कि नगरीय महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं (छत्र125) के व्यवसाय सन्तोष का परीक्षण ज्ञात करने पर प्राप्ताँकों का मध्यमान क्रमशः 81.76 एवं 80.06 तथा मानक विचलन क्रमशः 13.83 व 8.19 पाया गया।  
तालिका सं0-4
ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष का तुलनात्मक अध्ययन:
क्रम सं0     क्षेत्र
छ ड ैण्क्ण् ैम्कण् क्रान्तिक मान सार्थकता
01 ग्रामीण क्षेत्रों के महाविद्यालयों में शिक्षणरत्  अध्यापक 125 76.82 16.78
2.11
2.85
    ’’
02 ग्रामीण  क्षेत्रों के महाविद्यालयों में शिक्षणरत्  अध्यापिकाऐं 125 82.85 16.69  
0ण्01 स्तर पर सार्थक

तालिका संख्या-4 से स्पष्ट होता है कि ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं (छत्र125) के व्यवसाय सन्तोष का परीक्षण ज्ञात करने पर प्राप्ताँकों  का मध्यमान क्रमशः 76.82 एवं 82.85 तथा मानक विचलन क्रमशः 16.78 व 16.69 पाया गया। दोनों के मानों में अन्तर पाया गया, यह अन्तर सार्थक है या नहीं, के लिए क्रान्तिक अनुपात मान की गणना करने पर यह मान 2.85 प्राप्त हुआ जो कि सार्थकता सारणी में देखने से ज्ञात होता है कि यह मान 1.96 एवं 2.56 से अधिक पाया गया। अतः इस प्रकार कहा जा सकता है कि ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष में 0.01 स्तर पर सार्थक अन्तर पाया गया।
अतः परिकल्पना संख्या-4 ‘‘ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष में कोई सार्थक अन्तर नहीं होगा’’- निरस्त की जाती है।
ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष में 0.01 स्तर पर सार्थक अन्तर पाया गया। इसके कई कारण हो सकते हैं-
1. ग्रामीण क्षेत्रों के महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष के प्राप्तांकों में ग्रामीण क्षेत्र के अध्यापिकाओं की तुलना में ग्रामीण क्षेत्र के अध्यापकों का मध्यमान कम तथा मानक विचलन अधिक पाया गया। अतः कहा जा सकता है कि ग्रामीण क्षेेत्र के महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापिकाओं का व्यवसाय सन्तोष तुलनात्मक रूप से उच्च पाया गया।
2. ग्रामीण क्षेत्र के महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापिकाएं अपनी व्यवसाय संन्तोष वृद्धि हेतु अपने कार्याे के पश्चात् शैक्षिक अभिवृद्धि, शैक्षिक नियोजन तथा नवीन शैक्षिक संकल्पनाएं आदि समय निकाल कर नियोजित करती रहती है। जिससे कि तुलनात्मक रूप से उनकी व्यवसाय सन्तोष तुलनात्मक रूप से अध्यापकों से उच्च पायी गयी है। 

ग्राफ सं0-4
ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष का तुलनात्मक ग्राफीय अध्ययन:


ग्राफ संख्या-4 से स्पष्ट होता है कि ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं (छत्र125) के व्यवसाय सन्तोष का परीक्षण ज्ञात करने पर प्राप्ताँकों  का मध्यमान क्रमशः 76.82 एवं 82.85 तथा मानक विचलन क्रमशः 16.78 व 16.69 पाया गया।
प्रस्तुत शोध कार्य के निष्कर्ष:
1. नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापकों के व्यवसाय सन्तोष में 0.05 स्तर पर सार्थक अन्तर पाया गया।
2. नगरीय एवं ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष में कोई सार्थक अन्तर नहीं पाया गया।
3. नगरीय महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष में कोई सार्थक अन्तर नहीं पाया गया।
4. ग्रामीण महाविद्यालयों में शिक्षणरत् अध्यापक एवं अध्यापिकाओं के व्यवसाय सन्तोष में 0.01 स्तर पर सार्थक अन्तर पाया गया।

शैक्षिक उपयोगिता:
शिक्षा प्रक्रिया की धुरी शिक्षक है। शिक्षक जब तक अपने व्यवसाय की ओर आकर्षित नहीं होगा तब तक शिक्षाके लक्ष्यों को पूरा नहीं किया जा सकता है अतः अध्यापकों में अच्छी शिक्षण -मनोवृत्ति एवं उत्कृष्ट कार्यांे की भावना जागृत करनी पड़ेगी। अध्यापकों की समुचित शिक्षा एवं निपुणता उत्कृष्ट कार्यो की दृष्टि से आवष्यक तत्व है। बिना उचित शिक्षाके न तो कोई सुयोग्य अध्यापक बन सकता है और न ही उसमे अच्छी कार्य निष्ठा जागृत हो सकती है। अस्तु यह आवष्यक है कि जिन्हें अध्यापन व्यवसाय हेतु चुना जा रहा है उनमें निपुणता एवं समुचित शिक्षा प्रदान करने की भावना कूट-कूट कर भरी होनी चाहिए। इस दृष्टि से इस शोध कार्य के परिणाम शिक्षकों के लिए पर्याप्त उपयोगी सिद्व होगें।
शोधकत्र्री द्वारा किये गये शोध कार्य को अध्ययन, अनुभव और प्रयासों के आधार पर क्रमबद्ध एवं सुव्यवस्थित करने का प्रयास किया गया है। अनुसंधान कार्य एक ऐसी सतत् प्रक्रिया है जिसके माध्यम से शोध कार्य का शैक्षिक उपयोग भावी पीढ़ी के भविष्य निर्माण में किया जाता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची:
1. आजमी कायनात, सक्सेना दीप्ति (2011) स्ववित्तपोषित तथा अनुदानित माध्यमिक विद्यालयों में कार्यरत विज्ञान विषय के शिक्षकों की कार्य संतुष्टि (विभिन्न आयामांे के सन्दर्भ में) का तुलनात्मक अध्ययन, शिक्षा चिंतन, वर्ष 10 अंक. 37ए चहण् 39.43ण्
2. एट्रीया श्रण्ैण् ;2009द्ध - ने महाविद्यालय स्तर के शिक्षकों की शिक्षण प्रभावशीलता तथा उनका शिक्षक मूल्यांे और कार्य सन्तुष्टि के बीच सम्बन्ध का अध्ययन एम0बी॰बुचःएन॰सी॰आर॰टी॰ नई दिल्ली पृष्ठ-2150
3. पाठक-पी0डी0- शिक्षा मनोविज्ञान, विनोद प्रकाशन आगरा संस्करण, 2005 पृ0 356-357
4. मिश्रा, आत्मानन्द (1998), शिक्षण पद्धतियाँ, यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, बी-137 कर्मपुरा, नई दिल्ली पृष्ठ-159।
5. राय, पारसनाथ (2003), अनुसंधान परिचय, लक्ष्मी नारायन अग्रवाल शिक्षा सम्बन्धी प्रकाशन, आगरा, पृष्ठ-189,205
6. सिन्हा, एस. (1960), ए सर्वे आॅफ सम फैक्टर्स आॅन द क्वेशचन्स आॅफ इण्डिस्ट्रियालाइजेशन इन इण्डिया, इण्डियन जनरल आफ साइकालाॅजी, पृष्ठ-201
7. शर्मा, आर0ए0 (2003), अध्यापक शिक्षा, इण्टरनेशनल पब्लिशिंग हाउस मेरठ, पृष्ठ-201
8. शर्मा, आर.ए. और शिखा चतुर्वेदी (1994) निर्देशन तथा परामर्श, सूर्या पब्लिकेशन, मेरठ, पृष्ठ-192,193
9. पंत (2005) ‘‘ए स्टडी आॅफ द इंपेक्ट आॅफ एजूकेशन आॅन द एटीट्यूड्स, विलीव्स एण्ड विहेवियर आॅफ मुडिया स्कूल गोइंग चिल्ड्रेन आॅफ बस्तर’’ पी-एच0डी0 (शिक्षा), केरल विष्वविद्यालय केरल, पृष्ठ-101।
10. मेहमेट, गलटेकिन (2006), द एट्टीट्यूड्स आॅफ प्री स्कूल टीचर कन्डीडेंट स्टडींग थ्रो डिस्टेन्स एजूकेशन एप्रोच टुवर्ड्स टीचिंग प्रोफेशन एण्ड देयर परसेप्शन लेवलस् आॅफ टीचिंग कम्पीटेन्सी,ई0आर0टी0सी0 बेब पोर्टल पृष्ठ-125।
11. गुप्ता विनीता, (2011) अनुदानित एवं स्ववित्तपोषित महाविद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों की कार्य सन्तुष्टि एवं व्यवसायिक आकांक्षा का तुलनात्मक अध्ययन, शिक्षा चिंतन, अंक 41, 2011, पृष्ठ सं0 21-26।
12. चैधरी, के.के., कुमार, अरबिन्द (2010)ः अशासकीय एवं विद्या भारती द्वारा संचालित माध्यमिक विद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों की व्यावसायिक संतुष्टि का तुलनात्मक अध्ययन, भारतीय शिक्षा शोध पत्रिका, वर्ष-29, अंक-2 जुलाई-दिसम्बर, 2010, पृष्ठ सं0 41-46।
13. व्हाइट ए0 डब्ल्यू (2007):- ने कार्य-सन्तुष्टि से सम्बन्धित सभी कारकों व्यक्तिगत, संस्थागत और पद के बीच सम्बन्ध को ज्ञात करने के लिए अध्ययन एम0बी॰बुचःएन॰सी॰आर॰टी॰ नई दिल्ली पृष्ठ-2150