भारत में महिला सशक्तिकरण की स्थिति-वर्तमान परिदृश्य

निर्मला

प्रवक्ता, समाज कार्य विभाग,

 महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी।

सारांश

           किसी भी देश के विकास संबंधी सूचकांक को निर्धारित करने के लिए उद्योग, व्यापार, खाद्यान्न उत्पादन, शिक्षा इत्यादि के साथ-साथ उस देश की महिलाओं की स्थिति का भी अध्ययन किया जाता है। नारी की सुदृढ़ एवं सम्मानजनक स्थिति एक उन्नत तथा मजबूत समाज का द्योतक है। जहां तक भारत देश का संबंध है यहां ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमंते तत्र देवता‘ का सूत्र वाक् पौराणिक काल से ही मान्य रहा है। यह बात अलग है कि जहां एक ओर दुर्गा, सीता, पार्वती और लक्ष्मी के रूप में नारी को पूजनीय बताया गया है वहीं इसी देश में नारी को अबला बताकर परम्परा एवं रूढि़यों की बेड़ी में जकड़ा गया है। हालांकि इसमें कोई मत वैभिन्न्य नहीं है कि स्वतंत्रता के बाद से संविधान के नारी समर्थन वाले प्रावधानों को पोषित करने वाले कानूनों के प्रणयन तथा विभिन्न प्रकार के सरकारी प्रयासों के कारण आज भारत में महिलाओं की स्थिति में गुणात्मक सुधार हो रहा है। यही कारण है कि आज महिलाएं देश की विभिन्न आर्थिक गतिविधियों में समान रूप से सहभागी बन रही हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा सेवाओं, आर्किटेक्चर, इंजीनियरिंग जैसे अनेक क्षेत्रों में महिलाओं की सहभागिता में अप्रत्याशित वृद्धि परिलक्षित हो रही है। इतना ही नहीं काॅरपोरेट सेक्टर में जहां दो दशक पहले तक पुरूषों का ही वर्चस्व था वहां आज महिलाएं न केवल अपने उच्च प्रबंधकीय क्षमता का प्रदर्शन कर रही हैं बल्कि नेतृत्व भी कर रहीं हैं। सशक्तिकरण की दिशा में भारतीय महिलाओं का कदम अब पुरुषों की बैसाखी का मोहताज नहीं रहा है।

 की वर्डः महिला सशक्तिकरण , आधुनिक समाज, भारतीय महिला ।

           प्रायः महिलाओं को समाज में शांतिप्रिय, सहृदयी तथा सामाजिक व्यवस्था का निर्माता माना जाता है। उन्हें प्रेम, बलिदान एवं विनम्रता के प्रतीक के रूप में भी सराहा जाता है इसकें बावजूद यह एक विडंबना ही है, कि महिलाओं को जिन्हांेंने अपने परिवार तथा समाज के विकास के लिए वस्तुतः स्वयं को मिटा दिया, उन्हें अपने वास्तविक स्वरूप में आने तथा पूर्ण क्षमता दिखाने के अवसर तो प्राप्त हुए है परन्तु अभी भी अपेक्षित परिणाम हमारें सामने नहीं आ पाये है। आज भी ज्यादातर मामलों में निर्णय पुरूषों द्वारा लिये जाते है और प्रायः महिलाओं के स्वतंत्र निर्णय की कोई कद्र नहीं की जाती है, उनके साथ दोहरे मानदण्ड अपनाये जाते है, उनकी शक्ति पर संदेह करके उन्हें ऐसी अवसरों से वंचित किया जाता है जिसमें वह अपनी क्षमता का पूर्ण प्रदर्शन कर सकती है। आॅंकड़े भी पुरूषों की तुलना में महिलाओं को पीछें बताते है जबकिं समाज के उचित विकास के लिए महिला एवं पुरूष दोनों के उपलब्धियों एवं विकास में संतुलन आवश्यक है और इसी आवश्यकता ने ही ‘‘महिला सशक्तिकरण‘‘ के प्रत्यय को जन्म दिया जिसका प्रत्यय महिलाओं को शक्ति सम्पन्न बनाना है।

                महिला सशक्तिकरण को एक ऐसी प्रक्रिया कहा जा सकता है जिसके द्वारा महिलायें समाज में व्याप्त समस्त संस्थाओं तथा संरचनाओं में होने वाले लिंग संबंधी विभेद को चुनौंती देती है, जब वह भयमुक्त होकर सम्मान खोयें बगैर जिस लक्ष्य को पाना चाहती हों, उसका प्रयास कर सकती है और अपने गतंव्य तक पहुॅच सकती है तथा उसकी इच्छा-अनिच्छा एवं सुझावों का परिवार, समाज व देश के स्तर पर कदर होती है। संक्षेप में यह कहें कि समाजरूपी रथ के दो पहियों में एक पहिया अगर नारी है, तो उसे भी उतना ही सबल और सुयोग्य होने की आवश्यकता है जितना की पुरूष है और यही सबलता एवं सुयोग्यता ही महिला सशक्तिकरण की असली पहचान ळें।

           उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ही 1985 में नैराबी में सम्पन्न अन्र्तराष्ट्रीय महिला सम्मेलन में पहली बार महिला सशक्तिकरण शब्द का प्रयोग किया गया तथा 1993 में बीजिंग में अन्र्तराष्ट्रीय महिला सम्मेलन में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण की आवश्यकता पर बल दिया गया। इसी दिशा में भारत केन्द्र सरकार द्वारा महत्वपूर्ण कदम वर्ष 2001 में महिला सशक्तिकरण नीति की घोषणा के साथ उठाया गया। महिलाओं के उत्थान तथा सशक्तिकरण के लिए इस नीति में कई दिशा-निर्देश तथा मानक तय किये गए जिनमें महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार तथा सामाजिक सुरक्षा हेतु आधारभूत ढाँचा तैयार करना तथा सभी प्रकार की सामाजिक गतिविधियों (सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और यांत्रिक) सभी क्षेत्रों में समान रूप से भागीदारी बनाना, महिलाओं के प्रति किसी भी प्रकार के यौन उत्पीड़न, भेदभाव, घरेलू हिंसा को रोकने के लिए समूचित कानून बनाना, महिलाओं को सामाजिक अधिकार दिलाना सम्मिलित है। 9 मार्च 2010 में केन्द्र सरकार द्वारा महिला सशक्तिकरण की दिशा में उल्लेखनीय प्रयास करते हुए संसद तथा विधायिका में राज्य विधान परिषदों सहित सभी विधायी निकायों में महिलाओं को 33ः आरक्षण उपलब्ध कराने का प्रयास किया गया है तथा 73वें एवं 74वें संविधान संशोधन अधिनियम के अन्तर्गत ग्राम पंचायतों तथा नगरपालिकाओं में क्रमशः अनुच्छेद 243 (घ) तथा अनुच्छेद 243 (न) द्वारा आरक्षित तथा अनारक्षित वर्ग की महिलाओं हेतु 33ः आरक्षण की व्यवस्था की गयी, जिसका परिणाम है कि आज वैश्वीकरण के इस युग में परिस्थिति बदल चुकी है। स्त्रियों ने अनेक मौकों पर अपनी शक्ति सम्पन्नता का अहसास कराया है। आज का समाज यह समझ चुका है कि विकास कार्यों में स्त्री की सहभागिता कें बिना वांछित लक्ष्य प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। अतः आज समाज में ‘महिला सशक्तिकरण‘ प्रत्यय का जन्म हो चुका है और इस हेतु अनेक प्रयास किये जा रहे है जिसका परिणाम हमारे प्रत्यक्ष है।

           आधुनिक समाज में मध्य वर्ग तथा उच्च वर्ग की महिलाएं वकील, अफसर, प्रधानाध्यापक, चिकित्सक, इंजीनियर, पत्रकार व पायलट आदि हैं। निम्न वर्ग में स्त्रियां, अखबार बेचना, पान-बीड़ी बेचना, जंगल में लकडि़यां काटकर लाना, कृषि कार्य में सहयोग देना आदि कार्य करती हैं। महिलाएं गृह कार्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। वे गृहकार्य, बच्चों का पालन-पोषण, बर्तन, घर की सफाई, कपड़े धोना, सिलाई वृद्धजनों की सेवा आदि अनगिनत कार्यों को करती है, जो कि पुरूषों के कार्यों से अधिक महत्वपूर्ण है। वर्तमान में तो महिलाएं बाहरी क्षेत्र में भी कार्य करती है। शिक्षा, व्यवसाय, प्रशासन आदि संबंधी उत्तरदायित्व निर्वाह के साथ वे सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में भी कार्यरत हैं वह पुलिस अफसर, वायुयान-पायलट, जलपोत संचालक आदि के दायित्वों को सम्भाल रही है।

               श्रीमती इंदिरा गांधी, श्रीमती भंडारनायके, श्रीमाती गोल्डामायर, श्रीमती थ्रेचर, श्रीमती चंद्रिका कुमारतुंगे आदि नारियां आधुनिक नारी में आये बदलाव को डंके की चोट पर बता रही है। इतना ही नहीं कई नारियां विश्व के सर्वोच्च शिखर एवरेस्ट पर भी हो आई है, जिनमें बछेन्द्र पाल व संतोष यादव के नाम उल्लेखनीय है। इसके आलावा किरण बेदी, कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स, श्रीमती प्रतिभा पाटिल, श्रीमती शीला दीक्षित, श्रीमती बसुन्धरा राजे सिंधिया, श्रीमती सोनिया गांधी, सुश्री मायावती से लकर कर्णम कलेश्वरी, पी0टी0 उषा और सानिया मिर्जा, एवं साईना नेहवाल जैसी कई महिलाओं ने पुलिस प्रशासन से लेकर विज्ञान, राजनीति और खेल के क्षेत्र में भारत का नाम रोशन किया है। कला, अभिनय, संगीत, लेखन, माॅडलिंग यहां तक की विश्व सुन्दरी का खिताब जीतने वाली नारियां आज आकाश की ऊँचाईयों को छूती नजर आ रही है। नौकरी करने वाली महिलाएं तो परिवार की आर्थिक मदद करने वाली एक महत्वपूर्ण इकाई है। आज उनके मानसिक दृष्टिकोण में बदलाव आया है, हर समस्या को गहराई से सोचना व उस पर निर्णय लेना उनकी आज की तेजी से परिवर्तित होती स्थिति को ही दर्शाता है, जिसके कारण आज उनके रहन-सहन में भी एक अनोखा बदलाव आया है। सम्प्रति महिलाओं ने अपनी दिमाग की खिड़की को खोला है। आज वह उससे झांकना ही नहीं चाहती अपितु उथल-पुथल व अनेक समस्याओं से ग्रसित इस सामाजिक परिवेश को पढ़कर अपने अस्तित्व को तलाशने की चाह में वह आगे बढ़ रही है। आज सामाजिक, राजनीतिक चेतना के प्रादुर्भाव एवं पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव व प्रगतिशील विचारधारा ने नारी दासता की बेडि़यों को काटा है, वह मुक्ति की ओर अग्रसर हुई है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् ‘समानता‘ के लिए नारी संघर्ष ने महत्वपूर्ण प्रगति की है और महिलाओं ने राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, विज्ञान, प्रबन्धन और खेलों आदि में अमिट छाप छोड़ी है।

           महिलाओं का सशक्तिकरण एक लगातार चलने वाली अनवरत और गतिशील प्रक्रिया है। जिसका मूल्य उद्देश्य यह है कि समस्त महिलाओं को समाज की मुख्यधारा में लाया जा सके और सत्ता संरचना में भागीदार बनाया जा सके, जिस हेतु भारत में लैंगिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए निम्नलिखित सराहनीय प्रयास किये गये है जिसमे सर्वप्रथम महिला सशक्तिकरण हेतु संसद द्वारा महिलाओं के अधिकारों के संरक्षण के लिए समय-समय पर कानूनों का प्रावधान किया गया है जिसमें समान पारश्रमिक अधिनियम 1976, प्रसूति प्रसुविधा अधिनियम 1961, बाल विवाह निषेध अधिनियम 1976, वेश्यावृत्ति निवारण अधिनियम 1986, सती प्रथा निरोधक अधिनियम 1987, प्रसव पूर्व निदान तकनीकी अधिनियम 1994, गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम 1971, अनैतिक व्यापार निरोधक अधिनियम 1959 (1986 में संशोधन), घरेलू हिंसा रोकथाम अधिनियम 2005, हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम 2005 आदि अधिनियम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए बनाए गए है। केन्द्र सरकार द्वारा महिला सशक्तिकरण की दिशा में कई कार्यक्रमों, योजनाओं को भी चलाया गया है, जिसमें समेकित बाल विकास योजना 1975, स्वावलम्बन योजना 1982, महिला समाख्या योजना 1989, पुर्नउत्पादित एवं बाल स्वास्थ्य योजना 1997, बालिका समृद्धि योजना 1997, महिलाओं एवं बालिकाओं के लिए विश्रामगृह योजना 1999, किशोरी शक्ति योजना 2000, श्री शक्ति पुरस्कार योजना 2000, स्वधार योजना 2001, सर्व शिक्षा अभियान योजना 2001, जीवन भारती महिला सुरक्षा योजना 2003, कस्तूरबा गाँधी विशेष बालिका विद्यालय योजना 2004, उज्जवला योजना 2005, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन योजना 2005, बालिका प्रोत्साहन योजना 2006, जननी सुरक्षा योजना 2006, इंदिरा गाँधी इकलौती कन्या छात्रवृत्ति योजना 2006, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय निशक्तता पेंशन योजना 2007, प्रियदर्शनी परियोजना 2008, राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना 2008, समेकित बाल संरक्षण योजना 2009, इंदिरा गाँधी मातृत्व सहयोग योजना 2010, सबला योजना 2012, कार्यरत महिला हाॅस्टल योजना 2013, स्वयम् सिद्धा योजना 2013 सम्मिलित है।

        इसके अतिरिक्त भारत के संविधान में महिलाओं को चाहे वह साक्षर हो या निरक्षर सभी को समान रूप से सुरक्षा प्रदान की गयी है, जिसमें अनुच्छेद (14)-विधि के समक्ष समानता के निर्देश, अनुच्छेद (15)- धर्म, जाति, लिंग, मूलवंश इत्यादि आधारों पर विभेद न करने का निर्देश, अनुच्छेद (16)- लोक नियोजन में समान अवसर दिये जाने का निर्देश, अनुच्छेद (23-24)- नारी के शोषण, बलात्-श्रम, महिलाओं का क्रय-विक्रय इत्यादि पर रोक, अनुच्छेद (33)-स्त्री-पुरूष दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन के निर्देश, अनुच्छेद (32) - स्त्री कर्मियों के स्वास्थ्य की दशा एवं उनकी क्षमता के अनुरूप कार्य की दशाओं को तय करने का निर्देश, अनुच्छेद (42)- महिलाओं को प्रसूति काल में वे सुविधाएँ मिल सके जो उन्हें मानवीय आधार पर मिलनी चाहिए, इत्यादि के निर्देश दिये गये है।

               वर्तमान में उपरोक्त अधिनियमों, अनुच्छेदों तथा योजनाओं के परिणामस्वरूप भारत में महिलाओं की स्थिति में स्पष्ट सुधार हुए है जिसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भारतीय जनगणना के अनुसार 1951 में जहां महिलाओं की साक्षरता दर 8.66 प्रतिशत थी, वहीं 2001 में बढ़कर यह 54.16 प्रतिशत तक पहुुंच गयी। इसी प्रकार 1961-71 में महिलाओं की औसत आयु जहां 40.6 वर्ष थी, वह 1991-2001 में 62 वर्ष हो गई है। यद्यपि 1952 में संसद में महिलाओं की संख्या 4 प्रतिशत थी जो 1999 तक 8.9 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है। स्थानीय निकायों में महिलाओं की भागीदारी यद्यपि 73वें संविधान संशोधन के कारण संतोषजनक हो गई है। ग्रामीण एंव जिला स्तर पर स्थानीय निकायों में लगभग 10 लाख महिलाएं शीर्ष पर हैं, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि आजादी से पहले तथा आजादी के बाद किये गये महिला विकास के प्रयास भले ही आधे-अधूरे क्यों न हो, भारतीय महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक मामलों में जो अधिकारिता प्राप्त हुई है, उसी के फलस्वरूप आज राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है। आज देश के दूर-दराज के भागों में रहने वाली निरक्षर तथा निर्धन महिलाओं को भी अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार है, साथ ही जो महिलाएँ आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी हो गयी है और वे अब अपने निर्णय स्वयं ले सकती है। परन्तु यदि देखा जाय तो भारत में बालिका भ्रूण-हत्या, बाल वेश्यावृत्ति, यौन शोषण महिला हिंसा जिस प्रकार से बढ़ रही है, उनके चलते महिलाओं को प्राप्त अधिकार भी बेमानी हो जाते है, जो यह स्पष्ट करते है कि वर्तमान में अभी भी महिला सशक्तिकरण की स्थिति संतोषजनक नहीं है। सरकार द्वारा प्राप्त सुविधाओं के उपरान्त भी महिलाओं का समुचित सशक्तिकरण नहीं हो पा रहा है तथा महिला विकास की गति अभी भी धीमी है। स्वतन्त्रता के 67 वर्ष पूरे होने के बावजूद भी दुनियाँ के सबसे बड़े लोकतन्त्र की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था में महिलाओं का प्रतिनिधित्व महज कुछ प्रतिशत है। महिला आरक्षण के मुद्दे की अहमियत ज्यादातर लोग समझते है लेकिन उस पर अमल करने का राजनीतिक जोखिम उठाने में कतराते है। भारत में महिला सशक्तिकरण की प्रमुख बाधा के रूप में लैंगिक भेदभाव, कन्या भ्रुण हत्या, लैंगिक असन्तुलन, अशिक्षा, लड़कों के प्रति अतिरिक्त सजगता तथा पुत्रीयों के प्रति उदासीन रवैया, पुत्र के नाम पर वंश चलाने की संकीर्ण विचारधारा, दहेज की कुप्रथा आदि सम्मिलित है जिन्हें समाप्त किये बिना महिला सशक्तिकरण के लक्ष्य की प्राप्ति नहीं की जा सकती। सेंटर फार एडवांस स्टडीज आॅफ इंडिया यूनिवर्सिटी पेनलसिलवेनिया (अमेरिका) द्वारा प्रकाशित रिर्पोट के अनुसार भी भारत में लैंगिक असन्तुलन में सुधार हेतु महिलाओं की शिक्षा, पोषण एवं स्वास्थ्य तथा उनकी आर्थिक सहभागिता में व्यापक सुधार की आवश्यकता है।

           अतः आवश्यक है कि महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए उन्हें शिक्षण-प्रशिक्षण आदि प्रदान करके आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बनाकर वास्तविक रूप से उनको अधिकारितापूर्ण बनाया जाय क्योंकि किसी भी राष्ट्र की परम्परा और संस्कृति उस राष्ट्र की महिलाओं की स्थिति से परिलक्षित होती है, महिलाएं समाज की रचनात्मक शक्ति होती हैं और अपने आने वाले कल को सुधारने के लिए हमें आज की महिलाओं को शक्तिकृत करना होगा जिसके लिए हमें रूढि़वादी विचारों को त्याग कर प्रगतिशील दृष्टिकोण अपनाना होगा। महिला सशक्तिकरण से संबंधित कानूनों को पूरी ईमानदारी से लागू करना होगा। विधायिका में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने मात्र की बात कहने से हमारी यह जिम्मेदारी पूरी नहीं हो जाती है बल्कि हमें अभी और आगे जाना होगा। इन सबके साथ ही हमें घरेलू तथा सामाजिक स्तर पर जागरूकता लाने का प्रयास करना होगा। शिक्षा के स्तर पर भी अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है, शिक्षा एक ऐसा कारगर अस्त्र है जो संपूर्ण सामाजिक ढांचे को बदल सकता है साथ ही साथ अन्य ठोस तथा यथार्थवादी पहलों के द्वारा महिलाओं को एक उत्साहवर्द्धक सामाजिक वातावरण उपलब्ध कराना होगा क्योंकि महिलाओं में अपार क्षमता निहित है और इन्हें सबल और सशक्त कर हम देश को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक रूप से सुदृढ़ बना सकेंगे। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का यह कथन आज भी प्रासंगिक है कि- ‘जब महिलाएं आगे बढ़ती हैं तो परिवार आगे बढ़ता है, समाज आगे बढ़ता है और राष्ट्र भी अग्रसर होता है।‘

 संदर्भ सूची-

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