जन्म-कर्म च मे दिव्यम् (श्रीकृष्णः)

डा0 ब्रह्मा नन्द पाठक 


स्ंक्षेपिका


भगवान् श्रीकृष्ण साक्षात् पर ब्रह्म हैं। भगवान् श्रीकृष्ण के चरण से ही भक्ति मंदाकिनी का सधानिर्झर प्रवाहित होकर शान्तिमय प्रवाह से जगत् को अप्लावित करता हुआ ब्रह्माण्ड को वेष्टित कर वहीं पहुँचकर लीन होता है, जिसमें डूबकर सनातन धर्मावलम्बी समाज सदा से अपने आपको सफल जन्मा कृत कृत्य बनाता आया और आज भी बना रहा है। वर्तमान युग के विशेष जिज्ञासुजनों के हितार्थ श्रीकृष्ण के जन्म और कर्म पर संक्षेप में विचार किया गया है।

की वर्ड: भगवान्, जन्म, कर्म। ।


श्री विष्णु भगवान् के मुख्य दश अवतारों में श्रीकृष्णावतार को जो महत्त्व प्राप्त है, वह अन्य किसी अवतार को नहीं है। भारतीय जनमानस इस बात से भलीभाँति परिचित है। ब्रह्मा, महेश, इन्द्र आदि प्रधान देवगण जिनके श्रीचरण-कमलों में पूर्ण अनुराग सहित नम्रभाव से अपने मणिमय मुकुटों को स्पर्श कराते हुए वन्दना करते हैं, ऐसे नव नटनागर भगवान् वासुदेव  श्रीकृष्ण ने निज भक्तों को भवसागर से पार करने के लिए लोक-विलक्षण अद्भुत विग्रह धारण किया था। वे अनन्त, अचिन्त्य तथा स्वभाव से ही ज्ञान, ऐश्वर्य, कारुण्य, वात्सल्य, दया, सौन्दर्य, माधुर्य आदि कल्याण-गुणों के सागर हैं।

ऐष्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यषसः श्रियः।
वैराग्यस्याथ मोक्षस्य षण्णां भग इतीर्णाः।।1

भगवान् स्वयं सच्चिदानन्द स्वरूप अनन्त अन्चित्य स्वाभाविक शक्ति वैभव का आश्रयकर असीम आनन्द प्रदान करते हैं। भगवान् की अनेक लीलाएं ऐसी हैं, जिनमें मनुष्य की विचार-शक्ति-सर्वथा स्थगित हो जाती है। आप ही जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के कारण है।

उत्पत्तिं प्रलयं चैव भूतानामागतिं गतिम्।
वेत्ति विद्यामविद्यां च स वाच्यो भगवानिति।।2

भगवान् के जन्म के विषय में कुछ लोग शंका करते हुए कहते हैं कि‘पूर्णकामअजन्मा भगवान् जन्म क्यों लेते हैं ? इस शंका का समाधान करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि ‘पानी में डूबते हुए अनन्यगति बालक को देखकर वत्सल पिता प्रेमविह्वल होकर जैसे स्वयं पानी मे कूद पड़ता है वैसे ही सर्वेश्वर भी संसार-महासागर में गोते लगाते हुए अनन्यगति जीवों को देखकर उनके उद्धार के लिए स्वयं प्रेमविह्वल होकर कूद पड़ते हैं गीता में भगवान् स्वयं कहते हैं-

यदा यदा धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमर्धस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाषाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे।।
3

हे भरतवंशी अर्जुन ! जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं स्वयं ही उपर्युक्त रूप में जन्म (अवतार) लेता हूँ। साधु पुरुषों की संरक्षा के निमित्त और दुष्टों का नाश करने के लिए, युग-युग में धर्म संस्थापना के लिए  जन्म लिया करता हूँ।
भगवान् का जन्म दिव्य है, अलौकिक है, अद्भुत है। भगवान् की दिव्यता को जानने वाला करोड़ों मनुष्यों में शायद ही कोई एक होगा, जो इनकी दिव्यता को जान लेता है वह मुक्त हो जाता है। भगवान् कहते हैं कि-

जन्म कर्म च में दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्वक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेतिसोऽर्जुन।।4

हे अर्जुन ! मेरा यह जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् अलौकिक है, इस प्रकार जो पुरुष तत्त्व से जानता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता, किन्तु मुझे प्राप्त होता है अर्थात् मुक्त हो जाता है।
भगवान् के जन्म के रहस्य को न जानने वाले लोग कहा करते हैं कि निराकार सच्चिदानन्दघन परमात्मा का साकार रूप में जन्म लेना न तो सम्भव है और न युक्तिसंगत ही है और वे यह भी शंका करते हैं कि सर्वव्यापक, सर्वत्र समभाव से स्थिति सर्वशक्तिमान् भगवान् पूर्णरूप से एक देश में कैसे प्रकट हो सकते हैं ? वास्तव में ऐसी शंकाओं का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जब मनुष्य-जीवन में इस लोक की किसी अद्भुत घटना के सम्बन्ध में प्रत्यक्ष ज्ञान हुए बिना विश्वास नहीं करता तो वह भगवान् के दिव्य जन्म की बात है। भौतिक विषय को तो उसके क्रियासाध्य होने के कारण विज्ञान के जानने वाले किसी भी समय प्रकट करके उस पर विश्वास करा भी सकते हैं। किन्तु परमात्मा सम्बन्धी विषय बड़ा ही विलक्षण है। भगवान् के सम्बन्ध में प्रत्यक्ष ज्ञान प्रेम और श्रद्धा से स्वयमेव  निरन्तर उपासना द्वारा ही जाना जा सकता है। कोई भी दूसरा मनुष्य अपनी मानवी शक्ति से इसे प्रकट करके नहीं दिखला सकता। भगवान् ने कहा है-

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप।।
5

हे श्रेष्ठतप वाले अर्जुन ! अनन्य भक्ति करके तो इस प्रकार मैं प्रत्यक्ष देखने के लिए और तत्त्व से जानने के लिए तथा प्रवेश करने के लिए अर्थात् एकीभाव से प्राप्त होने के लिए भी मैं शक्य हूँ।
भगवान् की सर्वव्यापकता उसी प्रकार से है जिस प्रकार अग्नितत्त्व कारण रूप से निराकार है और संसार में समभाव से सभी जगह अप्रकटरूपेण व्याप्त है। वह अपनी दाहक शक्ति से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को भस्म कर सकती है। इसी प्रकार निराकार सर्वव्यापी विज्ञानानन्दघन अक्रिय रूप परमात्मा अप्रकट रूप से सब जगह व्याप्त होते हुए भी सम्पूर्ण गुणों से सम्पन्न अपने पूर्ण प्रभाव के सहित एक जगह अथवा एक ही काल में प्रकट हो सकते हैं, इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है ? इस प्रकार भगवान् का प्रकट होना तो सर्व प्रकार से युक्ति-संगत है।
भगवान् के अवतरण के बहुत से कारण हो सकते हैं, जिनको वस्तुतः वे ही जानते हैं। फिर भी अपनी साधारण बुद्धि के अनुसार कई कारणों में से एक यह भी कारण समझ में आता है कि वे संसार के जीवों पर दया करके सगुण रूप में प्रकट होकर एक ऐसा ऊँचा आदर्श रख जाते हैं- संसार को ऐसा सुलभ और सुखकर मुक्ति-मार्ग बतला जाते हैं जिससे वर्तमान और भावी संसार के असंख्य जीव परमेश्वर के उपदेश और आचरण को लक्ष्य में रखकर उनका अनुकरण कर कृतार्थ होते रहते हैं।
भगवान् के जन्म और विग्रह दिव्य होते हैं। यह बड़े ही रहस्य का विषय है। भगवान् का जन्म साधारण मनुष्यों की भाँति नहीं होता। भगवान् श्रीकृष्ण जब कारागार में वासुदेव-देवकी के सामने प्रकट हुए, उस समय का ‘श्रीमद्भागवत’ का प्रसंग देखने और विचारने से मनुष्य समझ सकता है कि उनका जन्म साधारण मनुष्यों की भाँति नहीं हुआ। अव्यक्त सच्चिदानन्दघन परमात्मा अपनी लीला से ही  शंख, चक्र, गदा, पद्म सहित विष्णु के रूप में वहाँ प्रकट हुए। उनका प्रकट होना और पुनः अन्तर्धान होना उनकी स्वतन्त्र लीला है, वह हम लोगों के उत्पत्ति-विनाश की तरह नहीं है। भगवान् की तो बात ही निराली है। अवश्य ही भगवान् श्रीकृष्ण का अवतरण साधारण लोकदृष्टि में उनके जन्म लेने के सदृश ही हुआ। परन्तु वास्तव में वह जन्म नहीं था, वह तो उनका प्रकट होना था। ‘श्रीमद्भागवत’ में शुकदेव जी कहते हैं-

कृष्णमेनमवे हित्वमात्मानमखिलात्मनाम्।
जगद्धिताय सोऽप्यत्र देही वा भाति मायया।।
6

भगवान् श्रीकृष्ण को सम्पूर्ण भूतप्राणियों के आत्मा जानें। इस लोक में भक्तगणों के उद्धार के लिए ये भगवान् अपनी माया से देहधारी से प्रतीत होते हैं।
भगवान् मनुष्यों की तरह जन्म नहीं लेते। जन्म न लेने पर भी वे जन्म की लीला करते हैं अर्थात् मनुष्यों की तरह माँ के गर्भ में आते हैं, परन्तु मनुष्य की तरह गर्भाधान नहीं होता। जब भगवान् श्रीकृष्ण माँ देवकी जी के गर्भ में आते हैं, तब वे पहले वासुदेव जी के मन में आते हैं तथा नेत्रों के द्वारा देवकी जी में प्रवेश करते हैं और देवकी जी मन से भगान् को धारण करती हैं।

ततो जगन्म¯लमच्युतांष समाहितं शूरसुतेन देवी।
दधार सर्वात्यकमात्मभूतं काष्ठा यथाऽऽनन्दकरं मनस्तः।।
7

जब भगवान् दिव्य रूप से प्रकट हुए तब माता देवकी उनकी अनेक प्रकार से स्तुति करती हुई कहती हैं-

उपसंहार विष्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम्।
शप्रचक्रगदापद्यूश्रिया जुष्टं चतुर्भुजम्।।
8

हे विश्वात्मा आप शंख, चक्र, गदा और पद्म से सुशोभित चार भुजाओं वाले अपने अद्भुत रूप को छुपा लीजिए। देवकी की प्रार्थना करने पर भगवान् ने अपने चतुर्भुज रूप को छिपाकर त्रिभुज बालक को रूप धारण कर लिया।

इत्युक्त्वाऽसीद्धरिस्तूष्णी भगवानात्ममायया।
पित्रोः संपष्यतोः सद्यो बभूव प्राकृतः षिषुः।।9

इससे इनका प्रकट होना ही स्पष्ट सिद्ध होता है। गीता में भी भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन के प्रार्थना करने पर पहले उन्हें अपना विश्वास दिखलाया, तत्पश्चात् उनकी प्रार्थना पर चतुर्भुज रूप साधारण किया और अन्त में पुनः द्विभुज रूप होकर दर्शन दिये। इससे प्रकट होता है कि भगवान् अपने भक्तों की इच्छा के अनुसार उन्हें दर्शन देकर अन्तर्धान हो जाते हैं। अपने जन्म की दिव्यता को दिखलाते हुए भगवान् गीता में अर्जुन से प्रति कहते हैं।

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतनामेष्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं  वामाधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया। ।10

मैं अविनाशी स्वरूप, अजन्मा होने पर भी तथा सब भूतप्राणियों का ईश्वर होने पर भी, अपनी प्रकृति को अधीन करके योगमाया से प्रकट होता हूँ।
उपर्युक्त वर्णन से यह सिद्ध हो जाता है कि भगवान् का प्रकट होना और अन्तर्धान होना मनुष्यों की उत्पत्ति और विनाश के सदृश नहीं है। उनका जन्म मनुष्यों के जन्म की भांति होता तो एक क्षण के अन्दर एक शरीर से दूसरे शरीर का परिवर्तन करना जैसे उन्होंने देवकी और अर्जुन के सामने किया था, कभी नहीं बन सकता। इससे यह बात सिद्ध हुई कि भगवान् का अन्तर्धान होना अपने परमधाम में सिधारना है, न कि मनुष्य देहों की भांति विनाश होना। श्रीमद्भागवत में भी लिखा है-

लोकाभिरामां स्वतनुं धारणाध्यानम¯लम्।
योगधारणायाग्नेय्यादग्ध्वा धामाविर्षस्वकम्।।1
1

भगवान् योगधारण जनित अग्नि के द्वारा अपनी लोकाभिरामा मोहिनीमूर्ति को भस्म किये बिना ही इस अपने शरीर से ही  परमधाम को पधार गये।
भगवान् का प्राकट्य भूतप्राणियों की उत्पत्ति की अपेक्षा ही नहीं, किन्तु योगियों के प्रकट होने की  अपेक्षा भी अत्यन्त विलक्षण है। वह जन्म दिव्य है, आलौकिक है, अद्भुत है। भगवान् मूल प्रकृति को अपने अधीन किये हुए ही अपनी योगमाया से प्रकट होते हैं। परमात्मा किसी के वश में होकर प्रकट नहीं होते। वे अपनी इच्छा से अवतरित होते हैं, इसलिए भगवान् ने गीता में कहा है- ईश्वर का प्रकट होना उनकी लीला है और जीवों का जन्म लेना दुःखमय है; ईश्वर प्रकट होने में सर्वथाा स्वतन्त्र है और जीव जन्म लेने में सर्वथा परतन्त्र है। ईश्र के जन्म में हेतु है जीवों पर उनकी अहैतुकी दया और जीवों के जन्म में हेतु है उनके पूर्वकृत शुभाशुभ कर्म। जीवों के शरीर अनित्य, पापमय, रोगग्रस्त लौकिक और पंचभौतिक होते हैं और ईश्वर का शरीर परमदिव्य अप्राकृत होता है। वह पंचभौतिक नहीं होता। श्रीमद्भागवत में ब्रह्माजी कहते हैं-

‘अस्यापि देव वपुषो मदनुग्रहस्य, स्वेच्छामयस्य न तु भूतगमयस्य कोऽपि।
नेशेमहि त्ववक्षितुं मनसान्तरेण साक्षात्तवैव किमुतात्मसुखानुभूतेः।12

हे देव ! आपके इस दिव्य प्रकट देह की
महिमा को भी कोई नहीं जान सकता, जिसकी रचना पंचभूतों से न होकर मुझ पर अनुग्रह करने के लिए अपने भक्तों के इच्छानुसार हुई हैं। फिर आपके इस साक्षात् आत्मसुखानुभव अर्थात् विज्ञानानन्दघन स्वरूप को तो हम लोग समाधि के द्वारा भी नहीं जान सकते।
इससे भी यह बात समझ में आती है कि भगवान् का शरीर लौकिक पंचभूतों से बना हुआ नहीं था। वह तो उनका खास संकल्प है, दिव्य प्रकृतियों से बना है, पाप-पुण्य से रहित होने के कारण अनामय अर्थात् रोग से रहित और विशुद्ध है। इसलिए निराकार सर्वव्यापी विज्ञानानन्दघन परमात्मा प्रकृति के गुणों सहित अपने भक्तों को विशेष ज्ञान कराने के लिए साकार होकर प्रकट होते हैं प्रकृति के सहित उस शुद्ध सच्चिदानन्दघन परमात्मा के प्रकट होने का तत्त्व सबकी समझ में नहीं आता। इसलिए भगवान् ने गीता में कहा है-

नाहं प्रकाषः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।1
3

अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबको प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ, इसलिए यह अज्ञानी मनुष्य मुझ जन्मरहित; अविनाशी परमात्मा को तत्त्व से नहीं जानता है अर्थात् मुझे जन्मने मरने वाला मानता है।
भगवान् ने कहा भी है-
अवजानन्ति मां मूढा मांनुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेष्वरम्।।14

सम्पूर्ण भूतों के महान् ईश्वर रूप मेरे परमात्मा को न जानने वाले मूर्ख लोग, मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ परमात्मा को तुच्छ समझते हैं अर्थात् अपनी योगमाया से संसार के उद्धार के लिए मनुष्य रूप में विचरते हुए मुझको साधारण मनुष्य मानते हैं।
इससे यह बात सिद्ध हो गयी कि निराकारी सर्वव्यापी भगवान् जीवों के ऊपर दया करके धर्म की संस्थापना के लिए दिव्य-साकार रूप से समय-समय पर अवतरित होते हैं, इस प्रकार शुद्ध सच्चिदानन्द निराकार परमात्मा के दिव्य गुणों के सहित प्रकट होने के तत्त्व को जो जानता है वही पुरुष उस परमात्मा की दया परमगति को प्राप्त होता है।
जिस प्रकार भगवान् के जन्म की अलौकिकता (दिव्यता) है उसी प्रकार भगवान् के कर्मों की भी अलौकिकता है। इसलिए भगवान् के कर्मों की दिव्यता जानने से पुरुष परमपद को प्राप्त हो जाता है। भगवान् के कर्मों में अहैतुकी दया, समता, स्वतन्त्रता उदारता, दक्षता और प्रेम आदि गुण भरे रहने के कारण मनुष्यों की तो बात ही क्या, सिद्ध योगियों की अपेक्षा भी उनके कर्मों में विलक्षणता होती है। वे सर्वशक्तिमान्, सर्वसामथ्र्यवान्, असम्भव को भी सम्भव कर देने वाले होने पर भी न्याय विरुद्ध कोई कार्य नहीं करते, उन विज्ञानानन्द घन भगवान् श्रीकृष्ण ने सर्वभूत प्राणियों पर परमदया करके धर्म की स्थापना और जीवों का कल्याण किया। उनकी प्रत्येक क्रिया में प्रेम, दक्षता, निष्कामना और दया, परिपूर्ण है। जब भगवान् वृन्दावन में थे, तब उनकी बाललीला की प्रत्येक प्रेममयी क्रिया को देखकर वहाँ का जनमानस मुग्ध हो जाता था। ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं था जो भगवान् की लीला को देखकर मुग्ध न हो गया हो। उनके क्रिया-कलाप पर मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी तक मुग्ध हो जाते थे। प्रौढ़ अवस्था में भी उनके कर्मों की विलक्षणता को देखकर उनके तत्त्व को जानने वाले प्रेमी भक्त पद-पद पर मुुग्ध हुआ करते थे। अर्जुन तो उनके कर्म और आचरणों पर तथा हाव-भाव चेष्टा को देख-देखकर इतना मुग्ध हो गये थे कि वह सदा उनके ही इशारे पर कठपुतली की भाँति कर्म करने के लिए तैयार रहते थे।
भगवान् के लिए कोई कत्र्तव्य न होने पर भी वे केवल जीवों को सन्मार्ग में लगाने के लिए कर्म किया करते हैं। गीता में भगवान् ने स्वयं कहा है-

‘न मे पार्थास्ति कत्र्तव्य त्रिषु लोकेषु कि´चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।1
5

हे अर्जुन ! यद्यपि मुझे तीनों लोकों में कुछ भी कत्र्तव्य नहीं है तथा किंचित् भी प्राप्त होने योग्य वस्तु अप्राप्त नहीं है तो भी मैं कर्म में ही बर्तता हूँ अर्थात् नियत कर्म करने में तत्पर रहता हूँ। भगवान् को समता बड़ी ही प्रिय थी। इसलिए गीता में भी उन्होंने समता का वर्णन किया है-

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विषिष्यते।।1
6

सुहृद, मित्र, वैरी उदासीन मध्यस्थ द्वेषी और बन्धुगणोें मंे तथा धर्मात्माओं और पापियों में भी जो समान-भाव वाला है वह अति श्रेष्ठ है।
गीता में भगवान् ने कहा ही नहीं है अपितु काम पड़ने पर अपने मित्र और शत्रु के साथ समता का व्यवहार भी किया है। महाभारत युद्ध के प्रारम्भ में दुर्योधन और अर्जुन दोनों ही ने भगवान् से युद्ध में सहायता करने की प्रार्थना की। भगवान् ने कहा कि एक ओर मेरी एक अक्षौहिणी नारायणी सेना है और दूसरी ओर मैं अकेला हूँ, पर मैं युद्ध में हथियार नहीं धारण करूँगा।
इससे यह बात सिद्ध हुई कि भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन और दुर्योधन दोनों के साथ समान व्यवहार किया। भगवान् श्रीकृष्ण को अर्जुन कितना अधिक प्रिय था यह बात महाभारत में श्रीकृष्ण स्वयं श्रीवासुदेव जी से कहते हैं-
योऽहं तमर्जुनं विद्धि योऽर्जुनः सोहमेव तु।।
यद्ब्रयात्तत्तथा कार्यामिति बुध्यस्व भारत।17

जो मैं हूँ सो अर्जुन है और जो  अर्जुन है सो मैं हूँ, वह जैसा कहे, आप वैसा ही कीजिएगा तथा श्रीमद्भगवद्गीता में भी भगवान ने कहा है-

भक्तोऽसि में सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तुमम्।18

इतना होते हुए भी वे अपने प्रिय सखा अर्जुन से युद्ध करने वाले दुर्योधन को भी समानभाव से सहायता करने को तैयार हो गये। जो अपने मित्र का शत्रु होता है वह अपना शत्रु ही समझा जाता है। महाभारत में भगवान् श्रीकृष्ण जब सन्धि कराने गये तब उन्होंने स्वयं यह कहा भी था-

यस्तान्द्वेष्टि स मां द्वेष्टि यस्ताननु स मामनु।
ऐकात्म्यं मां गतं विद्धि पाण्डवैर्धर्मचारिभिः।।19

जो पाण्डवों का शत्रु है, वह मेरा शत्रु है और जो उनके अनुकूल है वह मेरे अनुकूल है। मैं धर्मात्मा पाण्डवों से अलग नहीं हूँ। ऐसा होने पर भी भगवान् ने दुर्योधन की सैन्य बल से सहायता की। संसार में ऐसा कौन पुरुष होगा जो अपने प्रेमी मित्र से शत्रु को उसी से युद्ध करने के कार्य में सहायता दे। परन्तु भगवान् की समता का कार्य विलक्षण था। इस सहायता को पाकर दुर्योधन भी अपने को कृतकृत्य मानने लगा और उससे ऐसा समझा कि मैंने कृष्ण को ठग लिया-

कृष्णं चाऽपहृतं ज्ञात्वा सम्प्राप परमां मुदम्।
दुर्योधनधनस्तु तत्सैन्यं सर्वमादाय पार्थिवः।।2
0

भगवान् के प्रभाव को दुर्योधन नहीं जानता था, इसलिए उन्हें मूर्ख समझा। अतः जो लोग महापुरुषों के गुणों को नहीं जानते वे दुर्योधन जैसे होते हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण जो कुछ भी करते थे, सबके अन्दर समता, निःस्वार्थता, अनासक्तता आदि भाव पूर्ण रहते थे, इसी से वे कर्मों के द्वारा कभी लिपायमान नहीं होते थे। गीता में उन्होंने कहा भी है-

चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागषः।
तस्य कर्तरमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।।
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न में कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।2
1

हे अर्जुन ! गुण और कर्मों के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा रचे गये हैं, उनके कर्ता को भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू अकर्ता ही जान, क्योंकि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है इसलिए कर्म मुझको लिपायमान नहीं करते हैं। इस प्रकार जो मुझको तत्त्व से जानता है वह भी कर्माें से नहीं बंधता है यथा-

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।।2
2

हे अर्जुन ! उन कर्मों में आसक्तिरहित और उदासीन के सदृश स्थित हुए मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बांधते।
भगवान् की तो बात ही क्या है। तत्त्व को जानने वाला पुरुष भी कर्माें में लिपायमान नहीं होता। भगवान् श्रीकृष्ण को कर्मों में आसक्ति, विषमता और फल की इच्छा नहीं रहती थी। जो मनुष्य यह समझकर की कर्मों में आसक्ति, फल की इच्छा एवं विषमता ही बन्धन के हेतु है, इन दोषों को त्यागकर अहंाररहित होकर कर्म करता है, वही कर्मों के तत्त्व को जानकर कर्म करता है। इस प्रकार कर्म के तत्त्व को जानकर कर्म करने वाला कर्म के द्वारा नहीं बँधता, ऐसा समझकर जो स्वयं इन दोषों को त्यागकर कर्म करता है, वही इस तत्त्व को समझता है। इसी प्रकार विषमता, अभिमान, फल की इच्छा और आसक्ति को त्यागकर कर्मों का सेवन करने वाला मनुष्य उनसे बंधकर मुक्ति को प्राप्त होता है।
भगवान् श्रीकृष्ण के कर्मों में और भी अनेक विचित्रताएं हैं। जिनको हम नहीं जान सकते और सा यत्कि॰िचत जानते हैं उसको भी समझाना बहुत कठिन है। हम तो चीज ही  क्या हैं, भगवान् की लीलाओं को देखकर ऋषि, मुनि और देवतागण भी मोहित हो जाया करते थे। ‘श्रीमद्भागवत’ में लिखा है कि एक समय श्रीकृष्णचन्द्र जी की लीलाओं को देखकर ब्रह्मा जी भी मोहित हो गये थे। तब उन्होंने ग्वालबालों के सहित ले जाकर एक गुफा में छिपा दिया भगवान् श्रीकृष्ण ने यह जानकर तुरन्त वैसे ही दूसरे ग्वाल बाल और बछड़े रच लिए, और गौएंँ तथा गोपियों को यह मालूम नहीं हुआ कि यह बालक तथा बछड़े दूसरे ही हैं।
वास्तव में ईश्वर के लिए कोई भी बात असम्भव नहीं है। वे असम्भव को भी सम्भव करके दिखा सकते हैं। चिन्तन करने की बात है कि इस प्रकार के अलौकिक तथा अद्भुत कर्म साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या है, योगी लोग भी नहीं कर सकते।
भगवान् के जन्म कर्म की दिव्यता का विषय बड़ा आलौकिक और रहस्यमय है। अर्जुन भगवान् के अत्यन्त प्रिय थे इसलिए भगवान् ने यह अत्यन्त गोपनीय रहस्य उनसे कहा था।
इस प्रकार भगवान् के जन्म और कर्म की दिव्यता को जो तत्त्व से जानता है वही भगवान् को तत्त्व से जानता है। अतएव हम सबको इसके तत्त्व को समझने की कोशिश करनी चाहिए। जो पुरुष इस तत्त्व को जितना ही अधिक समझेगा, वह उतना ही आनन्द में मुग्ध होता हुआ भगवान् के निकट पहुँचेगा। उसके कर्माें में भी अलौकिकता दृष्टिगत होने लगेगी और वह भगवान् के प्रभाव को जानकर प्रेम में मुग्ध हो शीघ्र ही परमगति को प्राप्त हो जायेगा।

संदर्भः

  1. विष्ण्णु पुराण 6.5
  2.  विष्णु पुराण 6.5.18
  3.  गीता 4.7-8
  4.  गीता  4.9
  5.  गीता 11.54
  6.  श्रीमद्भागवत 10.14.55
  7.  श्रीमद्भागवत 10.2.18
  8.  श्रीमद्भागवत 10.3.30
  9.  श्रीमद्भागवत 10.3.46
  10.  गीता 4.6
  11.  श्रीमद्भागवत 11.31.6
  12.  श्रीमद्भागवत 10.14.2
  13.  गीता 7.25
  14.  गीता 9.11
  15.  गीता 3.22
  16.  गीता 6.9
  17. महाभारत (मौसल पर्व 6.21-22)
  18. गीता 4.3
  19.  महाभारत (उद्योग पर्व 91.28)
  20. महाभारत (उद्योग पर्व 7.24)
  21. गीता 4.13-14
  22. गीता 9.9

सहायक ग्रन्थ-सूची

  1.  कल्याण (श्रीकृष्णाप्र) वर्ष-6 संख्या-1 गीता प्रेस गोरखपुर, सं0-1988
  2.  गीता दर्पण (स्वामी रामसुख दास) गीता प्रेस गोरखपुर, सं0-2060
  3.  तत्त्व चिन्तामणि (जयदयाल गोयन्दका) गीता प्रेस गोरखपुर, सं0-2056
  4.  श्रीमद्भगवतगीता (शाप्ररभाष्य) गीता प्रेस गोरखपुर, सं0-
  5.  श्रीमद्भागवतपुराणम् (महर्षि वेदव्यास) गीता प्रेस गोरखपुर, सं0-2046